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________________ (१७६) जगत्सम्भवस्थेमविध्वंसरूपै रलीकेन्द्रजालैन यो जीवलोकम् । महामोहकूपे निचिक्षेप नाथः स एकः परात्मा गतिमें जिनेन्द्रः ॥ ११ ॥ भावार्थ-तेमज जगत्नी उत्पत्ति करवारूप, नाश करवारूप अने ध्रौव्यरूपी खोटा इन्द्रजालना स्वरूपथी जेमणे लोकोने महामोहरूपी रूपमां पण नांख्या नथी एवो ते एकज जिनेन्द्र परमात्मा अमारा कल्याणने माटे थाओ ॥ ११ ॥ समुत्पत्तिविध्वंसनित्यस्वरूपा यदुत्था त्रिपद्येव लोके विधित्वम् । हरत्वं हरित्वं प्रपेदे स्वभावैः स एकः परात्मा गतिर्मे जिनेन्द्रः ॥ १२ ॥ भावार्थ तथा उत्पत्ति १ ध्वंस २ अने नित्यरूप ३ जे त्रिपदी जेमनाथी प्रगट थएली तेज पोतपोताना, स्वभावथी आ १ अनादि अनंतपणाथी रहेला-जीव अजीवादि पदार्थो कारणवशथी उत्पन्न अने ध्वंस थई ने पण पाछा पोतपोताना स्वभावने प्राप्त थवाना एवो जे जिनेश्वर देवनो उपदेश छे तेने त्रिपदी कहेवामां आवे छे. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.005250
Book TitleJainetar Drushtie Jain
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarvijay
PublisherDahyabhai Dalpatbhai
Publication Year1923
Total Pages408
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size13 MB
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