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________________ निकोंके निगूढ़ विचारही दर्शन हैं । बस तब तो कहना होगा कि-सृष्टिकी आदिसे जैनमत प्रचलित है, सज्जनों ! अनेकान्तवाद तो एक ऐसी चीज है कि उसे सबको मानना होगा, और लोगोंने माना भी है। देखिये विष्णुपुराण अध्याय ६ द्वितीयांशमें लिखा है नरकस्वर्गसंज्ञे वै पापपुण्ये द्विजोत्तम ! वस्त्वेकमेव दुःखाय सुखायेोद्भवाय च । कोपाय च यतस्तस्माद्वस्तु वस्त्वात्मकं कुतः ? ॥ ४२ ॥ यहाँ पर जो पराशर महर्षि कहते हैं कि-वस्तु वस्त्वात्मक नहीं है, इस्का अर्थ यही है कि कोई भी वस्तु एकान्ततः एकरूप नहीं है, जो वस्तु एकसमय सुखहेतु है वह दूसरे क्षणमें दुःख की कारण हो जाती है, और जो वस्तु किसी क्षणमें दुःखकी १ तात्पर्य हे द्विजोत्तम ! नरकसंज्ञा ते पापनी अने स्वर्गसंज्ञा ते पुण्यनी छे. एकज वस्तुथी-एक वखते दुःख थाय छे. तो फरीथी सुख पण थाय छे अने ते ज वस्तुथी ईर्ष्या पण उद्भवे छे. कोई वखते तेनाथी क्रोध पण थाय छे. ज्यारे वस्तुनी आ प्रकारनी स्थिति छे तो पछी सदा एकज स्थितिमां रहे छे एम केवी रीते कही शकाय ? अर्थात् वस्तु सदा एकज स्वरूपमा रही शकती नथी एज सिद्ध थाय छे. ॥ संग्राहक.. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.005250
Book TitleJainetar Drushtie Jain
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarvijay
PublisherDahyabhai Dalpatbhai
Publication Year1923
Total Pages408
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size13 MB
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