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________________ चतुर्थस्तुतिनिर्णय भाग-१ श्रावकोंकों कहते है। तथा च जीवानुशासनवृत्तौ श्रीदेवसूरिभिः प्रोक्तं ॥ यदि पुनर्गच्छो गुरुश्च सर्वथा निजगुणविकलो भवति तत आगमोक्तविधिना त्यजनीयः परं कालापेक्षया योऽन्यो विशिष्टतरस्तस्योपसंपद्ग्राह्या न पुनः स्वतंत्रैः स्थातव्यमिति हृदयं । इति जीवानुशासनवृत्तौ। इसकी भाषा लिखते है, जेकर गच्छ और गुरु यह दोनो सर्वथा निजगुण करके विकल होवे तो, आगमोक्त विधि करके त्यागने योग्य है, परं कालकी अपेक्षायें अन्य कोइ विशिष्टतर गुणवान संयमी होवे, तिस समीपें चारित्र उपसंपत् अर्थात् पुनर्दीक्षा ग्रहण करनी परंतु उपसंपदाके लीया विना स्वतंत्र अर्थात् गुरुके विना रहणा नहीं, इस कहनेका तात्पर्यार्थ यह है के जो कोइ शिथिलाचारी असंयमी क्रिया उद्धार करे सो अवश्यमेव संयमी गुरुके पास फेरके दीक्षा लेवे. इस हेतुसें रत्नविजयजी अरु धनविजयजीकों उचित है के प्रथम किसी संयमी गुरुके पास दीक्षा लेकर पीछे क्रिया उद्धार करे तो आगमकी आज्ञाभंग रुप दूषणसें बच जावे और इनकों साधु माननेवाले श्रावकोंका मिथ्यात्वभी दूर हो जावे, क्योंके असाधुकों साधु मानना यह मिथ्यात्व है और विना चारित्र उपसंपदा अर्थात् दीक्षाके लीये कदापि जैनमतके शास्त्रमें साधुपणा नही माना है। (९) तथा महानिशीथके तीसरे अध्ययनमें ऐसा पाठ है । सत्तट्ठ गुरुपरंपरा कुसीले, एग हु ति परंपरा कुसीले ॥ इस पाठका हमारे पूर्वाचार्योने ऐसा अर्थ करा है, इहां दो विकल्प कथन करनेसें ऐसा मालुम होता है के एक दो तीन गुरु परंपरा तक कुशील शिथिलाचारीके हूएभी साधु समाचारी सर्वथा उच्छिन्न नही होती है, तिस वास्ते जेकर कोइ क्रिया उद्धार करे तदा अन्य संभोगी साधुके पाससें चारित्र उपसंपदा विना दीक्षाके Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004920
Book TitleChaturtha Stuti Nirnaya Part 1 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherNareshbhai Navsariwala Mumbai
Publication Year2007
Total Pages386
LanguageGujarati, Hindi
ClassificationBook_Gujarati
File Size14 MB
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