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________________ १२ चतुर्थस्तुतिनिर्णय भाग - १ ग्रंथ बनवाय दो, जिसके वाचने पढनेसें सज्जनोके अंतःकरणमें अर्हद्धचन उत्थापन करणे वालेने भ्रम डाल दीया है सो मिट जावेगा । इत्यादि बहोत उपकार ऐसी श्रीसंघकी आग्रह पूर्वक विनंति सुनकर और लाभका कारण जानकर महाराज श्रीआत्मारामजीने यह विषय पर ग्रंथ बनानेकी मंजुरीयात दीनी । (६) फेर महाराज साहेब यह रत्नविजयजीको प्रथमकी मंत्रसाधनेकी हकीकतसें तथा पीछेसें श्रीविजयधरणींद्रसूरिसें खटपट चली इत्यादि, और भी तिसके पीछे स्वयमेव श्रीपूज बन बैठे, तथा उदेपुरके राणेकी फरमानसें पालखी चमरादि छीन लीनी, तदूपीछे स्वयमेव साधुजी बन बैठे इत्यादि कितनीक हकीकत प्रथमसे सुनी थी और कितनीक अबभी श्रावकोंके मुखसें सुनके करुणाके समुद्र, परोपकार बुद्धिके ही परमाणुसें जिनके शरीरकी रचना हूइ है ऐसे महाराज साहेबने प्रथमतो रत्नविजयजी बहुत संसारी न हो जावे इसी वास्ते इनोका उद्धार करना चाहीयें. ऐसा उपकार बुद्धिसें हम सब श्रावकोंकों कहने लगे के प्रथमतो यह रत्नविजयजीकों जैनमतके शास्त्रानुसार साधु मानना यह बात सिद्ध नही होती है । क्योंके ? रत्नविजयजी प्रथम परिग्रहधारी महाव्रतरहित यति थे, यह कथा तो सर्व संघमें प्रसिद्ध है, अरु पीछे निर्गंथपणा अंगीकार करके पंचमहाव्रत रुप संयम ग्रहण करा; परंतु किसी संयमी गुरुके पास चारित्रोपसंपत् अर्थात् फेरके दीक्षा लीनी नही, अरु पहेले तो इनका गुरु प्रमोदविजयजी यती थे, सोतो कुछ संयमी नही थे यह बात मारवाडके बहोत श्रावक अच्छी तरेसें जानते है, तो फेर असंयतीके पास दीक्षा लेके क्रिया उद्धार करणा, यह जैनमतके शास्त्रोंसें विरुद्ध है । (७) इसी वास्ते तो श्रीवज्रस्वामी शाखायां चांद्रकुले कौटिकगणे बृहद्गच्छे तपगच्छालंकार भट्टारक श्रीजगच्चद्रसूरिजी महाराजे अपणेकों Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004920
Book TitleChaturtha Stuti Nirnaya Part 1 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherNareshbhai Navsariwala Mumbai
Publication Year2007
Total Pages386
LanguageGujarati, Hindi
ClassificationBook_Gujarati
File Size14 MB
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