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________________ शतक १६.-उद्देशक २. भगवत्सुधर्मस्वामिप्रणीत भगवतीसूत्र. बीओ उद्देसो. १. रायगिहे जाव-एवं वयासी-जीवाणं भंते ! किंजरा, सोगे' [उ०] गोयमा जीवाणं जरा षि सोगे विप्रा सेकेण्टेणं मंते! एवं बुचइ-जाव-'सोगे वि'? [उ०] गोयमा! जे णं जीवा सारीरं वेदणं वेदेति, तेसि णं जीवाणं जरा जेणे जीवा माणसं वेदणं वेदेति तेसि णं जीवाणं सोगे, से तेणटेणं जाव-सोगे वि । एवं नेरदयाण वि । एवं जाव-थणियकुमाराणं। २.[प्र०] पुढविकाइयाणं भंते ! किं जरा, सोगे? [उ०] गोयमा! पुढविकाइयाणं जरा, नो सोगे । प्र०] से केणट्रेणं जाव-'नो सोगे' १ [उ.] गोयमा! पुढविकाइया णं सारीरं वेदणं वेदेति, नो माणसं वेदणं वेदेति, से तेणटेणं जाव-नो सोगे। एवं जाव-बउरिदियाणं । सेसाणं जहा जीवाणं, जाव-वेमाणियाणं । 'सेवं भंते ! सेवं भंते !त्ति जाव-पज्जवासति । ३. [प्र०] तेणं कालेणं तेणं समएणं सके देविदे देवराया वजपाणी पुरंदरे जाव-भुंजमाणे विहरह । इमं च णं केवलकप्पं जंबुद्दीवं दीवं विपुलेणं ओहिणा आभोएमाणे २ पासति समणं भगवं महावीरं जंबुद्दीवे दीवे । एवं जहा ईसाणे तश्यसप तहेव सके वि । नवरं आभिओगे ण सद्दावेति, पायत्ताणियाहिवई हरी, सुघोसा घंटा, पालमो विमाणकारी, पालगं विभाणं, उत्तरिल्ले निजाणमग्गे, दाहिणपुरच्छिमिल्ले रतिकरपथए, सेसं तं चेव, जाव-नामगं सावेत्ता पजुवासति । धम्मकहा, जाव-परिसा पडिगया । तए णं से सके देविदे देवराया समणस्स भगवो महावीरस्स अंतियं धम्मं सोप्या निसम्म हटुतुट्ठ० समणं भगवं महावीरं वंदति नमंसति, वंदित्ता नमंसित्ता एवं बयासी४. [प्र०] कतिविहे गं भंते ! उग्गहे पन्नत्ते? [उ०] सक्का! पंचविहे उग्गहे पण्णत्ते, तंजहा-१.देविंदोग्गहे, २ रायो द्वितीय उद्देशक. १.प्र. राजगृहमा [भगवान् गौतम ] यावत्-आ प्रमाणे बोल्या के, हे भगवन् ! शुं जीवोने "जरा-वृद्धावस्था अने शोक जरा बने शोक. भरा अने शोक होय छे ! उ.] हे गौतम | जीवोने जरा पण होय छे अने शोक पण होय छे. [प्र०] हे भगवन् । ते ए प्रमाणे शा हेतुथी कहो छो . होवानुं कारण. के, जीवोने जरा अने शोक होय छे! [उ०] हे गौतम जे जीवोने शारीरिक वेदना होय छे ते जीवोने जरा होय छे, अने जे जीवोने मानसिक वेदना होय छे ते जीवोने शोक होय छे, माटे ते हेतुथी एम का छे के जीवोने जरा अने शोक होय छे, ए प्रमाणे नैरयिको संबंधे तथा यावत्-स्तनितकुमारो सुधी जाणवू. २. [प्र०] हे भगवन् । पृथिवीकायिकोने जरा अने शोक होय छे ! [उ०] हे गौतम ! पृथिवीकायिकने जरा होय छे, पण शोक पृथ्वीकायिक वीवोने नथी होतो. [प्र०] हे भगवन् ! तेनुं शुं कारण के पृथिवीकायिकोने जरा होय अने शोक न होय ! [उ०] हे गौतम ! पृथिवीकायिको ' । भरा अने शोक होया शारीरिक वेदनाने अनुभवे छे, पण मानसिक वेदनाने अनुभवता नथी माटे तेओने जरा होय छे, पण शोक नथी होतो. ए प्रमाणे कारण, यावत्-चतुरिंद्रिय जीवो सुधी जाणवु. बाकीना जीवो माटे सामान्य जीवोनी पेठे समजवु. अने ए प्रमाणे यावत्-वैमानिको सुघी कहेवू. 'हे भगवन् ! ते एम ज छे, हे भगवन् ! ते एम ज छे'-एम कही यावत्-पर्युपासना करे छे. ३. ते काळे ते समये शक्र, देवेंद्र, देवराज, वज्रपाणि, पुरंदर यावत्-सुखने भोगवतो विहरे छे, अने पोताना विशाल अवधिज्ञान शक्रेन्द्रनुं वर्णन अने वडे आ समस्त जंबूद्वीपने अवलोकतो अवलोकतो जंबूद्वीपमा श्रमण भगवंत महावीरने जुए छे. अहीं तृतीय शतकमां कहेल ईिशानेन्द्रनी आपर्व थक्तव्यता प्रमाणे शक्रनी बधी वक्तव्यता कहेवी. विशेष ए छे के आ शक आभियोगिक देवोने बोलावतो नथी. एनो सेनाधिपति हरिनैगमेषी देव छे, घंटा सुघोषा छे, पालक नामे देव विमाननो बनावनार छे, विमाननुं नाम पालक छे, एनो निकळवानो मार्ग उत्तर दिशाए छे, दक्षिण पूर्वमां-अग्निकोणमा रतिकर पर्वत छे. बाकी बधुं तेज प्रमाणे जाणवू. यावत्-शक पोतानु नाम संभळावी भगवंतनी पर्युपासना करे छे. श्रमण भगवंत महावीरे धर्मकथा कही. यावत्-सभा पाछी गई. त्यारबाद ते शक्र, देवेन्द्र, देवराज श्रमण भगवंत महावीर पासेथी धर्मने सांभळी, अवधारी हर्षवाळो अने संतोषवाळो थई श्रमण भगवंत महावीरने वांदी, नमी आ प्रमाणे बोल्यो १. [प्र०] हे भगवन् ! अवग्रह केटला प्रकारनो कह्यो छे! [उ०] हे शक्र ! अवग्रह पांच प्रकारनो कह्यो छे. ते आ प्रमाणे- अवमान्ने प्रश्न अने १ देवेन्द्रावग्रह, २ राजावग्रह, ३ गृहपतिअवग्रह, ४ सागारिकावग्रह अने ५ साधर्मिकावग्रह. जे आ श्रमण निम्रन्थो आजकाल विचरे र शकर्नु स्वखाव मन. १ * जरा शारीरिक दुःखरूप छे अने शोक मानसिक दुःखरूप छ, माटे मनोयोग विनाना जीवोने केवळ जरा भने मनोयोगवाळा जीवोने जरा भने शौक बन्ने होय छे.-टीका. ३ भग• खं० २ श.३ उ• १ पृ. २३. अवप्रह-स्वामीपणु, तेना पांच प्रकार छे. तेमा १ प्रथम देवेन्द्रावग्रह. देवेन्द्र एटले शक भने ईशानेन्द्र, तेनुं खामीपणुं अनुक्रमे दक्षिण लोकार्ध अने उत्तरलोकार्धमा छ, माटे ते देवेन्द्रावग्रह कहेवाय छे. २ चक्रवर्तिने अधीन भरतादि छ क्षेत्रमा राजाऽवग्रह होय छे. ३ मांडलिक राजाना पोताना ताबाना देशमा गृहपतिभवग्रह होय छे. ४ गृहस्थने पोतानी मालिकीना घर वगेरेमा सागारिकावग्रह होय छे. ५ समान धर्मवाळा. साधुओ परस्पर साधर्मिक कहेवाय छे, तेओनो वर्षाऋतु सिवायना काळमा एक मास सुधी भने वर्षाऋतुमा चार मास सुधी पांच कोशपर्यन्त क्षेत्रमा साधर्मिकावग्रह होय छे.-टीका. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004643
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBechardas Doshi
PublisherDadar Aradhana Bhavan Jain Poshadhshala Trust
Publication Year
Total Pages442
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size15 MB
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