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________________ शतक ३४.-एकेन्द्रियशतक १.-उद्देशक १. भगवत्सुधर्मस्वामिप्रणीत भगवतीसूत्र. ३२९ १९. प्रि०ा अपजत्तबायरतेउक्काइए णं भंते ! समयखेत्ते समोहए, समोहणित्ता जे भविए समयखेत्ते अपजत्तपायरतेअसायचाए उववजित्तए से णं मंते ! कासमइएणं विग्गहेणं उववजेजा ? [उ०] गोयमा! एगसमइएण वा दुसमइएण वा तिसमहरण वा विग्गहेणं उववजेजा। [प्र०] से केणटेणं? [उ०] अट्ठो जहेव रयणप्पभाए तहेव सत्त सेढीयो । एवं पजत्तबायरतेउकाइयत्ताए वि । वाउकाइएसु वणस्सइकाइपसु य जहा पुढविकाइएसु उववाहओ तहेव चउकएणं भेदेणं उववाएययो । एवं पजत्तबायरतेउकाइओ वि एएसु चेव ठाणेसु उववाएयधो । वाउकाइय-वणस्सइकाइयाणं जहेव पुढविकाइयत्ते उववाओ तहेव भाणियो। २०. [प्र०] अपजत्तसुहुमपुढविकाइए गं भंते ! उद्दलोगखेत्तनालीए बाहिरिले खेत्ते समोहए, समोहणित्ता जे भविए अहेलोगनेत्तनालीए बाहिरिले खेत्ते अपज्जत्तसुहमपुढविकाइयत्ताए उववजित्तए से णं भंते ! कइसमएणं०१ उ.] एवं । २१. उड्ढलोगखेत्तनालीए बाहिरिले खेत्ते समोहयाणं अहेलोगखेत्तनालीए बाहिरिले खेत्ते उववजयाणं सो चेव गमओ निरवसेसो भाणियधो, जाव-बायरवणस्सइकाइओ पजत्तओ बायरवणस्सइकाइएसु पजत्तएसु उववाइओ। २२. प्र०] अपजत्तसुहुमपुढविकाइए णं भंते ! लोगस्स पुरच्छिमिल्ले चरिमंते समोहए, समोहणित्ता जे भविए लोगस्स पुरच्छिमिल्ले चेव चरिमंते अपजत्तसुदुमपुढविकाइयत्ताए उववजित्तए से णं भंते ! कइसमइएणं विग्गहेणं उववजति ? [उ०] गोयमा! एगसमइएण वा दुसमइएण वा तिसमइएण वा चउसमइएण वा विग्गहेणं उववजति । [प्र०] से केणटेणं भंते ! एवं वुच्चइ-'एगसमइएण वा जाव-उववजेजा' ? [उ०] एवं खलु गोयमा! मए सत्त सेढीओ पन्नत्ताओ, तंजहा-१ उजुआयता, जाव-७ अद्धचक्कवाला । उजुआययाए सेढीए उववजमाणे एगसमइएणं विग्गहेणं उववजेजा। एगओवंकाए सेढीए उववजमाणे दुसमइएणं विग्गहेणं उववजेजा। दुहओवंकाए सेढीए उववजमाणे जे भविए एगपयरंसि अणुसेढी उववजित्तए से णं तिसमइएणं विग्गहेणं उववजेजा, जे भविए विसेदि उववजित्तए से णं चउसमइएणं विग्गहेणं उववजेजा, से तेणटेणं जाव-उववजेजा । एवं अपज्जत्तसुहुमपुढविकाइओ लोगस्स पुरच्छिमिल्ले चरिमंते समोहए, समोहणित्ता लोगस्स पुरच्छिमिल्ले चेव चरिमंते अपजत्तएसु पजत्तएसु य सुहुमपुढविकाइएसु, सुहुमआउकाइएसु, अपजत्तएसु पजत्तएसु सुहुमतेउकाइएसु, अपजत्तएसु पजत्तएसु य सुहुमवाउकाइएसु, अपजत्तएसु पजत्तपसु बायरवाउकाइएसु, अपजत्तएसु पज्जत्तरसु १९. [प्र०] हे भगवन् । जे अपर्याप्त बादर तेजस्कायिक समयक्षेत्र-मनुष्यक्षेत्रमा समुद्घात करी समयक्षेत्रमा अपर्याप्त बादर अपर्याप्त पावर तेजस्कायिकपणे उत्पन्न थवाने योग्य छे ते, हे भगवन् ! केटला समयनी विग्रहगतिथी उत्पन्न थाय ! [उ०] हे गौतम! ते एक समयनी, बे तेजस्कायिकनी बाणा. समयनी के त्रण समयनी विग्रहगतिथी उत्पन्न थाय. [प्र०] एम शा हेतुथी कहेवाय छे ? [उ०] रत्नप्रभा संबंधे जे हेतु कह्यो हतो तेज सात श्रेणिरूप हेतु जाणवो. एम पर्याप्त बादर तेजस्कायिकपणे पण जाणवू. जेम पृथिवीकायिकने विषे उपपात कह्यो तेम वायुकायिकोमा अने वनस्पतिकायिकोमा चारे भेदे उपपात कहेवो. ए रीते पर्याप्त बादर तेजस्कायिकनो पण एज स्थानकोमा उपपात कहेवो. जेम वायुकायिक अने वनस्पतिकायिकनो पृथिवीकायिकपणे उपपात कह्यो छे तेम आ विषे पण उपपात कहेवो. २०. [प्र०] हे भगवन् ! जे अपर्याप्त सूक्ष्म पृथ्वीकायिक ऊर्ध्वलोक क्षेत्रनी त्रसनाडीना बहारना क्षेत्रमा मरणसमुद्घात करीने अपर्याप्त सू० पृथिवी कायिकनी कोअधोलोक क्षेत्रनी त्रसनाडीनी बहारना क्षेत्रमा अपर्याप्त सूक्ष्म पृथ्वीकायिकपणे उत्पन्न थवाने योग्य छे ते, हे भगवन् ! केटला समयनी कमाची पोलोकमा विग्रहगतिथी उत्पन्न थाय ! [उ०] हे गौतम ! पूर्व प्रमाणे जाणवू. विग्रहगति. २१. ऊर्ध्वलोक क्षेत्रनी त्रसनाडीनी बहारना क्षेत्रमा मरणसमुद्घात करी अधोलोक क्षेत्रनी सनाडीनी बहारना क्षेत्रमा उत्पन्न थता [पृथिवीकायिकादि ] संबंधे पण तेज संपूर्ण गम कहेवो यावत्-पर्याप्त बादर बनस्पतिकायिकनो पर्याप्त बादर वनस्पतिकायिकोमा उपपात कहेवो. २२. [प्र०] हे भगवन् ! जे अपर्याप्त सूक्ष्म पृथिवीकायिक लोकना पूर्व चरमांतमा मरणसमुद्घात करी लोकना पूर्व चरमातमा लोकना पूर्व चरमा अपर्याप्त सूक्ष्म पृथिवीकायिकपणे उत्पन्न थवाने योग्य छे ते हे भगवन् ! केटला समयनी विग्रहगतिथी उत्पन्न थाय ! [उ०] हे गौतम! तमा पृथिवीकायिका एक समयनी, बे समयनी, त्रण समयनी के चार समयनी विग्रहगतिथी उत्पन्न थाय. [प्र०] हे भगवन् ! शा हेतुथी एम कहो छो के एक -चार समयनी विग्रहगतिथी उत्पन्न थाय ! [उ०] हे गौतम ! ए प्रमाणे खरेखर में सात श्रेणिओ कही छे, ते आ प्रमाणे१ ऋज्वायत, यावत्-७ अर्धचक्रवाल, जो ऋज्वायत-सीधी लांबी श्रेणीथी उत्पन्न थाय तो एक समयनी विग्रहगतिथी उत्पन्न थाय, एकतरफ वक्र श्रेणीथी उत्पन्न थाय तो ते बे समयनी विग्रहगतिथी उत्पन्न थाय. उभयतः वक्रश्रेणीथी उत्पन्न थाय तो जे एक प्रतरमा अनुश्रेणी-समश्रेणिथी उत्पन्न थवानो छे ते त्रण समयनी विग्रहगतिथी उत्पन्न याय, अने जे विश्रेणिमा उत्पन्न थवानो छे ते चार समयनी विग्रहगतिथी उत्पन्न थाय. ते कारणथी हे गौतम ! एम कयुं छे. ए प्रमाणे अपर्याप्त सूक्ष्म पृथिवीकायिक लोकना पूर्व चरमांतमा समुद्घात कना पूर्व चरमांतमांज २ अपर्याप्त अने पर्याप्त सूक्ष्म पृथिवीकायिकोमा, ४ अपर्याप्त अने पर्याप्त सूक्ष्म अप्कायिकोमा, ६ अपर्याप्त ४२ भ. सू० मा लगा . .यिनी विद्यापति. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.004643
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBechardas Doshi
PublisherDadar Aradhana Bhavan Jain Poshadhshala Trust
Publication Year
Total Pages442
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size15 MB
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