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________________ २८८ श्रीरायचन्द्र-जिनागमसंग्रहे शतक २६.-उद्देशक १. हिया, नपुंसगवेदगा न भन्नति, सेसं तं चेव, सवत्थ पढम-बितिया भंगा । एवं जाव-थणियकुमारस्स । एवं पुढविकाइयस्स वि, आउकाइयस्स वि, जाव-पंचिंदियतिरिक्खजोणियस्स वि सम्वत्थ वि पढम-बितिया भंगा, नवरं जस्स जा लेस्सा। दिट्टी, णाणं, अन्नाणं, वेदो, जोगो य अत्थि तं तस्स भाणियचं, सेसं तहेव । मणूसस्स जश्व जीवपदे वत्तष्ठया स चेव निरवसेसा भाणियथा । वाणमंतरस्स जहा असुरकुमारस्स । जोइसियस्स वेमाणियस्स एवं चेव, नवरं लेस्साओ जाणियचाओ, सेसं तहेव भाणियछ । १६.प्र. जीवे णं भंते । नाणावरणिजं कम्मं किं बंधी बंधड बंधिस्सइ-१ [उ०] एवं जहेव पावकम्मस्स वत्तधया तहेव नाणावरणिजस्स वि भाणियधा, नवरं जीवपदे मणुस्सपदे य सकसाई, जाव-लोभकसाइंमि य पढम-बितिया भंगा, अवसेसं तं चेव जाव-वेमाणिया । एवं दरिसणावरणिजेण वि दंडगो भाणियधो निरवसेसो। १७. [प्र०] जीवे णं भंते ! वेयणिजं कम्मं किं बंधी-पुच्छा। [उ०] गोयमा ! अत्थेगतिए बंधी बंधइ बंधिस्सह १, अत्यंगतिए बंधी बंधइ न बंधिस्सइ २, अत्यंगतिए बंधी न बंधइ न बंधिस्सइ ४, सलेस्से वि एवं चेव ततियविहूणा भंगा। कण्हलेस्से जाव-पम्हलेस्से पढम-वितिया भंगा, सुक्कलेस्से ततियविहूणा भंगा, अलेस्से चरिमो भंगो । कण्हपक्खिए पढम शानावरणीयनो वन्ध. साकार उपयोगवाळा अने अनाकार उपयोगवाळा-ए बधां पदोमां पहेलो अने बीजो-ए बे भांगा कहेवा. अर्थात् ए बधा प्रकारना नैरयिक जीवोने प्रथमना बे भांगा कहेवा. असुरकुमारने पण ए प्रमाणे वक्तव्यता कहेवी. परन्तु विशेष ए के तेओने तेजोलेश्या, स्त्रीवेद अने पुरुषवेद, अधिक कहेवो अने नपुंसकवेद न कहेवो. बाकी बधुं पूर्वे कह्या प्रमाणे जाणवं. बधे पहेलो अने बीजो भांगो कहेवो. ए रीते यावत्स्तनितकुमार सुधी जाणवू. एम पृथिवीकायिक, अप्कायिक अने यावत्-पंचेन्द्रिय तिर्यंचयोनिकने पण सर्वत्र पहेलो अने बीजो-ए बे भांगा जाणवा. परन्तु विशेष ए के, जे जीवने जे लेश्या, दृष्टि, ज्ञान, अज्ञान, वेद अने योग होय ते तेने कहेवो, अने बाकी बधुं तेज प्रमाणे जाणवू. मनुष्यने जीवपद संबंधे जे वक्तव्यता कही छे ते बधी वक्तव्यता कहेवी. असुरकुमारनी पेठे वानव्यंतरने जाणवू. तथा ज्योतिषिक अने वैमानिक संबंधे पण एज रीते समजवं. परन्तु विशेष ए के अहीं लेश्याओ कहेवी अने बाकी बधुं ते ज प्रमाणे कहेवू. १६. [प्र०] हे भगवन् ! शुं जीवे ज्ञानावरणीय कर्म बांध्यु हतुं बांधे छे अने बांधशे ? [उ०] हे गौतम ! जेम पाप कर्म संबंधे वक्तव्यता कही ते प्रमाणे ज्ञानावरणीय कर्म संबंधे पण कहेवी. परन्तु विशेष ए के, जीवपद अने मनुष्यपदमा सकषायी यावत्-लोभकषायीने आश्रयी *पहेलो अने बीजो भांगो कहेवो. बाकी बधुं तेमज कहे. ए प्रमाणे यावत्-वैमानिक सुधी जाणवू. ज्ञानावरणीय कर्मनी पेठे दर्शनावरणीय कर्मनो पण संपूर्ण दंडक कहेवो. १७. [प्र०] हे भगवन् ! शुं जीवे वेदनीय कर्म बांध्यु हतुं, बांधे छे अने बांधशे-इत्यादि पृच्छा. [उ०] हे गौतम ! १ कोइ जीवे बांध्यु हतुं, बांधे छे अने, बांधशे, २ कोइ जीवे बांध्यु हतुं, बांधे छे अने बांधशे नहीं. ४ कोइ जीवे बांध्यु हतुं, नथी बांधतो अने बांधशे नहीं. लेश्यावाळा जीवने पण एज रीते त्रीजा भंग सिवाय बाकीना त्रणे भांगा जाणवा. कृष्णलेश्यावाळा यावत्-पद्मलेश्यावाळा जीवोने पहेलो अने बीजो भांगो अने शुक्ललेश्यावाळा जीवोने त्रीजा भांगा सिवायना बाकीना (त्रणे) भांगा जाणवा. लेश्यारहित जीवोने छेल्लो भांगो जाणवो. कृष्णपाक्षिक जीवोने पहेलो अने बीजो अने शुक्लपक्षवाळा जीवोने त्रीजा भांगा सिवायना बाकीना त्रणे भांगा कहेवा. ए प्रमाणे सम्यग्दृष्टि जीवने विषे पण जाणवू. मिथ्यादृष्टि अने सम्यग्मिथ्यादृष्टि संबंधे पहेला बे भांगा जाणवा. ज्ञानीने त्रीजा भांगा सिवाय बाकीना वेदनीयकर्म बन्ध. १६ * पापकर्मना दंडकमा जीवपद अने मनुष्यपद संबंधे सकषायी अने लोभकषायीनी अपेक्षाए सूक्ष्मसंपराय मोहनीयरूप पापकर्मनो अबंधक होवाथी चार भांगा कह्या हता, परन्तु ज्ञानावरणीयना दंडकमां प्रथमना बे ज भांगा जाणवा. कारण के सकषायी अवश्य ज्ञानावरणीय कर्मनो बंधक होय छे, पण अबन्धक होतो नथी. १७ + वेदनीय कर्मने विषे पहेलो भांगो अभव्यने आश्रयी छे, जे भव्य निर्वाण पामवानो छे तेनी अपेक्षाए बीजो भांगो छे. त्रीजा भांगानो संभव नथी, कारण के वेदनीयनो अबन्ध करनार पुनः तेनो बन्ध करतो नथी, अने चोथो भांगो अयोगी केवलीने आश्रयी होय छे. + सलेश्य जीवने पूर्वोक्त हेतुथी त्रीजा भंग सिवायना भांगा जाणवा. परन्तु तेमा 'पूर्वे बांध्यु हतुं, बांधतो नथी अने बांधशे नहि'-ए चोथो भंग घटी शकतो नथी. पण आ भंग लेश्यारहित अयोगीने ज घटे छे. केमके लेझ्या तेरमा गुणस्थानक पर्यन्त होय छे, अने त्या सुधी तेओ वेदनीय कर्मना बन्धक छे. कोइ आचार्य एवं समाधान करे छे के आज सूत्रना वचनथी अयोगिताना प्रथम समये घंटालाला न्यायथी परमशुक्ललेश्या संभवे छे, भने तेथी जसलेश्यने चोथो भांगो घटी शके छे. तत्त्व बहुश्रुतगम्य-टीका, | कृष्णादि पांच लेश्यावाळाने अयोगिपणानो अभाव होवाथी तेओ वेदनीय कर्मना अबंधक नथी माटे तेओने आदिना बे भांगा होय छे. शुक्ललेश्यावाळाने सलेश्यनी जेम त्रण भांगा होय छे. लेश्यारहित शैलेशीगत केवली अने सिद्ध, होय छे अने तेने 'पूर्वे बांध्यु हतुं, बांधतो नथी अने बांधशे नहि आ एकज भांगो होय छे. कृष्णपाक्षिकने अयोगिपणाना अभावधी प्रथमना बे भागा होय छे, अने शुक्लपाक्षिक अयोगी पण होय छे माटे तेने त्रीजा भांगा सिवायना बाकीना भांगा होय छे. सम्यग्दृष्टिने अयोगीपणानो संभव होवाथी बन्ध थतो नथी, तेथी त्रीजा सिवाय ना भांगा होय छे. मिध्यादृष्टि अने मिश्रदृष्टिने अयोगिपणाना अभावथी वेदनीय, अबन्धकपणुं नथी तेथी प्रथमना बे ज भांगा होय छे. ज्ञानीने अने केवलज्ञानीने अयोगीपणामां छेल्लो भांगो होय छे, एटले त्रण भांगा जाणवा. आभिनिबोधिकादि ज्ञानवाळामा अयोगिपणानो अभाव होवाथी छेल्लो भांगो होतो नथी, मात्र तेने प्रथमना बे भांगा होय छे. Jain Education international For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004643
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBechardas Doshi
PublisherDadar Aradhana Bhavan Jain Poshadhshala Trust
Publication Year
Total Pages442
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size15 MB
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