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________________ शतक २५.-उद्देशक ४. भगवत्सुधर्मस्वामिप्रणीत भगवतीसूत्र. २१९ २६. [प्र. नेरइयाणं-पुच्छा। [उ०] गोयमा ! ओघादेसेणं सिय कडजुम्मसमद्वितीया, जाव-सिय कलियोगसमयटितीया वि। विहाणादेसेणं कडजुम्मसमयद्वितीया वि, जाव-कलियोगसमयट्टितीया वि । एवं जाव-वेमाणिया। सिद्धा जहा जीवा। २७. [प्र०] जीवे णं भंते ! कालवन्नपजवेहिं किं कडजुम्मे पुच्छा। [उ०] गोयमा! जीवपएसे पडुश्च णो कडजुम्मे, जाव-णो कलियोगे । सरीरपएसे पडुश्च सिय कडजुम्मे, जाव-सिय कलियोगे । एवं जाव-वेमाणिए । सिखो ण चेष पुच्छिजति । २८. [प्र०] जीवा गं भंते ! कालवनपज्जवेहि-पुच्छा। [उ.] गोयमा! जीवपएसे पडुश्च ओघादेसेण वि विहाणादेसेण वि णो कडजुम्मा, जाव-णो कलिओगा । सरीरपएसे पडुच्च ओघादेसेणं सिय कडजुम्मा, जाव-सिय कलियोगा; विहाणादेसेणं कडजुम्मा वि, जाव-कलिओगा वि । एवं जाव-वेमाणिया । एवं नीलवनपज्जवेहि दंडओ भाणियो। पगत्तपुहत्तेणं, एवं जाव-लुक्खफासपजवेहिं। ___२९. [प्र०] जीवे गं भंते ! आभिणियोहियणाणपजवेहिं किं कडजुम्मे-पुच्छा। [उ०] गोयमा ! सिय कडजुम्मे, जाव-सिय कलियोगे । एवं एगिदियवजं जाव-वेमाणिए । ३०. [प्र०न जीवा. णं भंते ! आभिणियोहियणाणपजवहि-पुच्छा। [उ०] गोयमा! ओघादेसेणं सिय कडजुम्मा, जाव-सिय कलियोगा। विहाणादेसेणं कडजुम्मा वि, जाव-कलियोगा वि । एवं एगिदियवजं जाव-वेमाणिया। एवं २६. [प्र०] हे भगवन् ! शुं नैरयिको कृतयुग्मसमयनी स्थितिवाळा छे–इत्यादि प्रश्न. [उ०] हे गौतम! तेओ सामान्यादेशनी नैरयिकादि दंडको . अपेक्षाए कदाच *कृतयुग्म समयनी स्थितिवाळा होय, यावत् कदाच कल्योज समयनी स्थितिवाळा पण होय. तथा विशेषादेशनी अपेक्षाए कृतयुग्म समयनी अने यावत्-काल्योज समयनी स्थितिवाळा पण होय. ए प्रमाणे यावत्-वैमानिको सुधी जाणवु. सामान्य जीवोनी पेठे सिद्धोने पण समजवु. २७. [प्र०] हे भगवन् ! शुं जीवना काळावर्णना पर्यायो कृतयुग्म राशिरूप छे-इत्यादि प्रश्न. [उ०] हे गौतम ! जीवप्रदेशोनी जीवना कालावर्णना अपेक्षाए ते कृतयुग्म, त्र्योज, द्वापर के कल्योज रूप नथी; पण शरीर प्रदेशोनी अपेक्षाए ते कदाच कृतयुग्म रूप होय, यावत्-कल्योज पर्यापो.. रूप पण होय. ए प्रमाणे यावत्-वैमानिक सुधी जाणवू तथा सिद्ध संबन्धे आ विषय बाबत कांइ न पूछq. २८. [प्र०हे भगवन् ! शुं जीवोना काळा वर्णपर्यायो कृतयुग्मराशिरूप छे-इत्यादि प्रश्न. [उ० हे गौतम ! जीव प्रदेशोने आश्रयी सामान्यादेशथी अने विशेषादेशथी कृतयुग्म रूप नथी, अने यावत्-कल्योज रूप पण नथी. शरीरप्रदेशोनी अपेक्षाए सामान्यादेशथी कदाच कृतयुग्म अने यावत्-कदाच कल्योज रूप पण होय, विशेषादेशथी कृतयुग्म, यावत्-कल्योजराशिरूप पण होय. ए प्रमाणे यावत्-वैमानिको सुधी जाणवू. तथा ए प्रमाणे एक वचन अने बहुवचनवडे लीला वर्णना पर्यायोनो पण दंडक कहेवो. एम यावत्-रुक्ष स्पर्श पर्यायो सुधी जाणवू. . २९. [अ०] हे भगवन् शुं जीवना आभिनिबोधिकज्ञानपर्यायो कृतयुग्म राशिरूप छे-इत्यादि प्रश्न. [उ०] हे गौतम ! कदाच जीवना आभिनिकृतयुग्म रूप होय अने यावत्-कदाच कल्योज रूप पण होय. ए प्रमाणे एकेन्द्रिय सिवायना जीवोने यावत्-वैमानिक मुधी जाणवा. गोधिक पर्यायो. ___३०. [प्र०] हे भगवन् ! शुं जीवो आभिनिबोधिक ज्ञान पर्यायो वडे कृतयुग्म छे-इत्यादि प्रश्न. [उ०] हे गौतम ! ते "सामान्या- जीवोना आभिनि बोधिकादिशानना देशथी कदाच कृतयुग्म अने कदाच कल्योज रूप पण होय, तथा विशेषादेशथी कृतयुग्म, यावत्-कल्योज रूप पण होय. ए प्रमाणे पर्यायो. एकेन्द्रिय सिवायना जीवोने यावत्-वैमानिको सुधी जाणवू. श्रुतज्ञानना पर्यायो अने अवधिज्ञानना पर्यायो संबन्धे एमज समजवु. पण __ २६ * बधा नारकादिनी स्थितिना समयो मेळवता भने चारथी अपहार करता बधा नैरयिको सामान्यादेशथी कृतयुग्म समयनी स्थितिवाळा, यावत्कल्योज समयनी स्थितिवाळा होय छे. अने विशेषादेशथी एक समये चारे प्रकारना होय छे.-टीका. २७ + अहिं जीवप्रदेशो अमूर्त होवाथी तेने आश्रयी काळादिवर्णना पर्यायो होता नथी, पण शरीरविशिष्ट जीवनुं ग्रहण होवाथी शरीरना वर्णनी अपेक्षाए क्रमशः चारे राशिनो व्यवहार थइ शके छे.. ___ २९ आवरणना क्षयोपशमनी विचित्रताथी आभिनिबोधिक ज्ञाननी विशेषताओ अने तेना सूक्ष्म अविभाज्य अंशोने आमिनिबोधिक ज्ञानना पर्यायो कहे छे. ते अनन्त छे, पण क्षयोपशमनी विचित्रताथी तेनुं अनन्तपणुं चोकस नथी, तेथी ते भिन्न भिन्न समयने आश्रयी चारे राशिरूप होय छे. एकेन्द्रिय जीवने सम्यक्त्व नहि होवाथी आभिनिबोधिक होतुं नथी, माटे एकेन्द्रिय सिवायना जीवोने कयुं छे. ३. बधा जीवोने आश्रयी सर्व आभिनिबोधिक ज्ञानना पर्यायो एकठा करीए तो सामान्यादेशथी भिन्न भिन्न काळनी अपेक्षाए चारे राशिरूप थाय, कारण के क्षयोपशमनी विचित्रताथी तेना पर्यायो अनवस्थितपणे अनन्ता होय छे. विशेषादेशथी एक काळे पण चारे राशिरूप थाय. केवल ज्ञानना पर्यायोगें अनन्तपर्ण अवस्थित होवाथी ते कृतयुग्मराविरूपज होय छे-टीका. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004643
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBechardas Doshi
PublisherDadar Aradhana Bhavan Jain Poshadhshala Trust
Publication Year
Total Pages442
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size15 MB
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