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________________ एगवीसइमं सयं । सालि कल अयसि वसे इक्खू दन्भे य अब्भ तुलसी य । अढए दस वग्गा असीतिं पुण होंति उद्देसा ॥ पढमो वग्गो पढमो उद्देसो। १. प्र०] रायगिहे जाव-पवं वयासी-अह भंते ! साली-वीही-गोधूमजाव-जवजवाणं, एएसि णं भंते ! जीवा मूलजाए वनमंति? ते णं भंते! जीवा कओहिंतो उववजंति-कि नेरहपहितो. जाव-उववजंति ? तिरि०, मणु०, देवे-जहा धकंतीए तहेव उववाओ, नवरं देववजं । २. [प्र.] ते णं भंते ! जीवा एगसमएणं केवतिया उववजंति ? [उ०] गोयमा! जहन्नेणं एक्को वा दो वा तिनि घा, उकोसेणं संखेजा वा असंखेजा वा उववजंति । अवहारो जहा उप्पलुइसे । एकवीशमुं शतक. १ शालि वगेरे धान्य संबंधे दश उद्देशात्मक प्रथम वर्ग, २ कलाय-वटाणा वगेरे धान्य विषे बीजो वर्ग, ३ अळसीप्रमुख धान्य संबंधे त्रीजो वर्ग, ४ वांस वगेरे पर्ववाळी वनस्पतिसंबंधे चतुर्थ वर्ग, ५ इक्षु वगेरे पर्ववाळी वनस्पति विषे पांचमो वर्ग, ६ दर्भ वगेरे तृण संबंधे छट्ठो वर्ग, ७ अभ्र वगेरे वनस्पति संबंधे सातमो वर्ग, ८ तुलसी प्रमुख वनस्पति विषे आठमो वर्ग. ए प्रमाणे एकवीशम शतकमा "दश दश उद्देशकना समूहरूप आठ वर्ग अने एंशी उद्देशको कहेवाना छे. प्रथम वर्ग प्रथम उद्देशक. १. [प्र०] राजगृह नगरमा [भगवान् गौतम ] यावत्-आ प्रमाणे बोल्या के, हे भगवन् ! शालि, व्रीहि, घउ, यावत्-जवजव- ए बधाना मूळतरीके जे जीवो उत्पन्न थाय छे, हे भगवन् ! ते जीवो क्याथी आवीने उपजे छे ?-शुं नैरयिकोथी आवीने उपजे छे के तिर्यचो, मनुष्यो अने देवोथी पण आवीने उपजे छे ? [उ.] व्युत्क्रान्तिपदमां कह्या प्रमाणे तेओनो उपपात जाणवो. विशेष ए के, तेओ देवगतिथी आवीने मूळपणे उपजता नथी. २. [प्र०] हे भगवन् ! ते जीवो एक समये केटला उत्पन्न थाय ! [उ०] हे गौतम ! जघन्यथी एक, बे के प्रण अने उत्कृष्टथी संख्याता के असंख्याता उत्पन्न थाय छे. तेओनो अपहार उत्पलोदेशका कह्या प्रमाणे जाणवो. शाल्यादि वर्ग. उत्पाद-एक समये केटला उपजे? सक्खू क। २ असीती क-ग-छ । १* मूळ, कन्द, स्कंध, त्वचा, शाखा, प्रवाल, (कोमल पदिडा ) पांदडा, पुष्प, फळ अने बीज-ए दश उद्देशको एक एक वर्गमा जाणवा-टीका. प्रज्ञा• पद ६५० २१२ 1व्युत्क्रान्तिपदा देवोनी वनस्पतिमा उत्पत्ति कही छे, देवो बनस्पतिना पुष्पादि शुभ अंगमा उत्पन्न याय छे, परन्तु मूळादि अशुभ अंगर्मा उत्पन थता नथी, माटे एम कर्दा छे के 'तेओ देवगतिथी आवीने मूळपणे उत्पन्न थता नथी'-टीका. २ अपहार-ते उत्पलना जीवो असंख्य उत्सर्पिणी अने अवसर्पिणी सुधी प्रतिसमय असंख्याता काढवामां आवे तो पूरा काढी शकाय नहि. जुओ-भग. खं. ३ श० ११ उ०१५० २०८. Jain Education international For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004643
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBechardas Doshi
PublisherDadar Aradhana Bhavan Jain Poshadhshala Trust
Publication Year
Total Pages442
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size15 MB
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