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________________ शतक १९.-उद्देशक. ८. भगवत्सुधर्मस्वामिप्रणीत भगवतीसूत्र. ९१ प्र०] 'सचट्ठसिद्धअणुत्तरोववातियकप्पातीतवेमाणियदेवपंचिंदियजीवनिवत्ती णं भंते ! कतिविहा पन्नत्ता? [उ०] गोयमा! दुविहा पन्नत्ता, तं तहा-पजत्तगसचट्ठसिद्धअणुत्तरोववातिय-जाव-देवपंचिदियजीवनिष्पत्ती य अपजत्तसचट्ठसिद्धाणुत्तरोववाइय-जाव-देवपंचिंदियजीवनिष्पत्ती य'। ४. [प्र०] कतिविहा णं भंते! कम्मनिष्पत्ती पन्नत्ता ? [उ०] गोयमा! अट्टविहा कम्मनिष्पत्ती पन्नत्ता, तं जहा-नाणावरणिजकम्मनिष्पत्ती, जाव-अंतराइयकम्मनिष्पत्ती। ५. [प्र०] नेरइयाणं भंते ! कतिविहा कम्मनिवत्ती पन्नत्ता? [उ०] गोयमा! अविहा कम्मनिवत्ती पन्नत्ता, तं जहानाणावरणिजकम्मनिष्पत्ती, जाव-अंतराइयकम्मनिष्पत्ती, एवं जाव-वेमाणियाणं । ६. [प्र०] कतिविहा णं भंते ! सरीरनिवत्ती पन्नत्ता ? [उ.] गोयमा! पंचविहा सरीरनिष्पत्ती पन्नत्ता, तं जहा-ओरालियसरीरनिष्पत्ती, जाव-कम्मगसरीरनिष्पत्ती। ७. [प्र०] नेरइयाणं भंते !०१ [उ०] एवं चेव, एवं जाव-वेमाणियाणं । नवरं नायवं जस्स जइ सरीराणि । ८. [प्र०] कइविहाणं भंते ! सधिदियनिधत्ती पन्नत्ता? [उ०] गोयमा। पंचविहा सविदियनिष्पत्ती पन्नत्ता, तं जहासोइंदियनिवत्ती, जाव-फासिदियनिष्पत्ती, एवं जाव-नेरइया(णं), जाव-थणियकुमाराणं। ९. [प्र०] पुढविकाइयाणं पुच्छा । [उ०] गोयमा! एगा फासिदियनिवत्ती पन्नत्ता, एवं जस्स जइ इंदियाणि, जाववेमाणियाणं। १०. [प्र०] कइविहा णं भंते ! भासानिवत्ती पन्नत्ता ? [उ०] गोयमा ! चउधिहा भासानिष्पत्ती पन्नत्ता, तं जहा-सप्याभासानिवत्ती, मोसाभासानिष्पत्ती, सच्चामोसमासानिष्पत्ती, असञ्चामोसमासानिवत्ती। एवं एगिदियवजं जस्स जा भासा जाव-वेमाणियाणं । ११. [प्र०] कइविहा णं भंते ! मणनिधत्ती पन्नत्ता? [उ०] गोयमा ! चउचिहा मणनिष्पत्ती पन्नत्ता, तं जहा-१ सचमणनिष्पत्ती, जाव-असञ्चामोसमणनिष्पत्ती । एवं एगिदियविगलिंदियवजं जाव-वेमाणियाणं । १२. [प्र०] कइविहा णं भंते ! कसायनिवत्ती पन्नत्ता? [उ०] गोयमाचउधिहा कसायनिवत्ती पन्नत्ता, तं जहाकोहकसायनिवत्ती, जाव-लोभकसायनिष्पत्ती, एवं जाव-वेमाणियाणं । देवपंचेन्द्रिय जीवनिवृत्ति केटला प्रकारे कही छे ! उ०] हे गौतम! बे प्रकारे कही छे, ते आ प्रमाणे-पर्याप्त सर्वार्थसिद्ध अनुत्तरौपपातिक यावत्-देवपंचेन्द्रियजीवनिर्वृत्ति अने अपर्याप्त सर्वार्थसिद्ध अनुत्तरौपपातिक यावत्-देवपंचेंद्रिय जीवनिर्वृत्ति. ४. [प्र०] हे भगवन् ! कर्मनिवृत्ति केटला प्रकारनी कही छे ? [उ०] हे गौतम! कर्मनिवृत्ति आठ प्रकारनी कही छे, ते आ कर्मनिर्वृत्ति. प्रमाणे-१ ज्ञानावरणीय कर्मनिवृत्ति, यावत्-अंतराय कर्भनिर्वृत्ति. ५. [प्र०] हे भगवन् ! नैरयिकोने केटला प्रकारनी कर्मनिर्वृत्ति कही छे, [उ०] हे गौतम ! आठ प्रकारनी कर्मनिर्वृत्ति कही छे, ते आ प्रमाणे-१ ज्ञानावरणीय कर्मनिर्वृत्ति, यावत्-८ अन्तराय कर्मनिर्वृत्ति. ए प्रमाणे यावत्-वैमानिक सुधी जाणवू. ६. प्र०] हे भगवन् ! शरीरनिवृत्ति केटला प्रकारनी कही छे ! [उ०] हे गौतम! शरीरनिर्वृत्ति पांच प्रकारनी कही छे, ते आ शरीरनिर्वृत्ति. प्रमाणे-१ औदारिकशरीरनिर्वृत्ति यावत्-५ कार्मणशरीरनिर्वृत्ति. ७. [प्र०] हे भगवन् ! नैरयिकोने शरीरनिर्वृत्ति केटला प्रकारनी छे ? [उ०] पूर्व प्रमाणे जाणवू. तथा ए प्रमाणे यावद्-वैमानिकोने जाणवू. विशेष ए के, जेने जेटलां शरीरो होय तेने तेटलां कहेवां. ८. [प्र०] हे भगवन् ! सर्वेन्द्रियनिर्वृत्ति केटला प्रकारनी कही छे ? [उ०] हे गौतम ! सर्वेन्द्रियनिर्वृत्ति पांच प्रकारनी कही छे, तें सर्वेन्द्रियनिर्वृत्ति. आ प्रमाणे-श्रोत्रेन्द्रियनिर्वृत्ति यावत्-स्पर्शेन्द्रियनिर्वृत्ति. ए प्रमाणे नैरयिको यावत्-स्तनितकुमारो संबन्धे जाणवू. .९. [प्र०] हे भगवन् ! पृथिवीकायिकोने केटली इन्द्रियनिर्वृत्ति कही छे ! [उ०] हे गौतम ! तेओने एक स्पर्शेन्द्रियनिर्वृत्ति कही छे. ए प्रमाणे जेने जेटली इन्द्रियो होय तेने तेटली इन्द्रियनिर्वृत्ति कहेवी. ए प्रमाणे यावत्-वैमानिको सुधी जाणवू. १०. प्र०] हे भगवन् । भाषानिर्वृत्ति केटला प्रकारनी कही छे ! उ० हे गौतम! भाषानिवृत्ति चार प्रकारनी कही छे, ते आ भाषानिवृत्ति. प्रमाणे-१ सत्यभाषानिवृत्ति, २ मृषाभाषानिवृत्ति, ३ सत्यमृषाभाषानिर्वृत्ति अने ४ असल्यामृषाभाषानिवृत्ति. ए प्रमाणे एकेन्द्रिय सिवाय यावत्-वैमानिको सुधी जेने जे भाषा होय तेने तेटली भाषानिर्वृत्ति कहेवी... ११. [प्र०] हे भगवन् ! मनोनिवृत्ति केटला प्रकारनी कही छे? [उ०] हे गौतम! मनोनिवृत्ति चार प्रकारनी कही छे. ते आ प्रमाणे- मनोनिवृत्ति सत्यमनोनिवृत्ति यावत्-असत्याऽमृषामनोनिवृत्ति. ए प्रमाणे एकेन्द्रिय अने विकलेन्द्रिय सिवाय बाकी बधा माटे यावत्-वैमानिको सुधी जाणवू. १२. [प्र०] हे भगवन् ! कषायनिवृत्ति केटला प्रकारनी कही छे ? [उ०] हे गौतम ! कषायनिर्वृत्ति चार प्रकारनी कही छे, ते कषायनिर्वृत्ति. आ प्रमाणे--क्रोधकषायनिवृत्ति, यावतू-लोभकषायनिर्वृत्ति. ए प्रमाणे-यावत्-मानिको सुधी जाणवू. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.004643
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBechardas Doshi
PublisherDadar Aradhana Bhavan Jain Poshadhshala Trust
Publication Year
Total Pages442
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size15 MB
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