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________________ श्रीरायचन्द्र-जिनागमसंग्रहे शतक १८.-उदेशक २.. २८. संजओ जीवो मणुस्सो य जहा आहारओ, अस्संजओ वि तहेव, संजयासंजए वि तहेव, नवरं जस्स जं अत्थि। नोसंजय-नोअसंजय-नोसंजयासंजया जहा नोभवसिद्धीय-नोअभवसिद्धीओ । २९. सकसाई जाव-लोभकसायी सचट्ठाणेसु जहा आहारओ, अफसायी जीवपदे सिद्ध य नो परिमो, मधरिमो, मणुस्सपदे सिय चरिमो, सिय अचरिमो ८। ३०. णाणी जहा सम्महिट्ठी सम्वत्थ, आभिणिवोहियनाणी, जाव-मणपजवनाणी जहा आहारओ, नवरं जस्स जं अस्थि । केवलनाणी जहा नोसन्नी-नोअसन्त्री, अन्नाणी जाव-विभंगनाणी जहा आहारओ ९। ३१. सजोगी जाव-कायजोगी जहा आहारओ, जस्स जो जोमो अत्थि । अजोगी जहा नोसन्नी-नोअसन्नी १० । ३२. सागारोवउत्तो अणागारोवउत्तो य जहा अणाहारओ ११ । ३३. सवेदओ जाव-नपुंसगवेदओ जहा आहारओ, अवेदओ जहा अकसाई १२। ३४. ससरीरी जाव-कम्मगसरीरी जहा आहारओ, नवरं जस्स जं अस्थि । असरीरी जहा नोभवसिद्धीय-नोअभवसिद्धीय १३ । ७ संवतबार मिश्रदृष्टि जीव 'कदाच चरम पण होय छे अने कदाच अचरम पण होय छे. ए प्रमाणे बहुवचनवडे चरम अने अचरप बन्ने जाणवा. ६ २८. *संयत जीव तथा मनुष्य ए बन्ने पदे आहारकनी पेठे (सू० २३ ) जाणवा. वळी असंयत अने संयतासंयत पण तेज प्रमाणे समजवा. विशेष ए के, जे जेने होय तेने ते कहे. तथा नोसंयत-नोअसंयत-नोसंयतासंयत नोभवसिद्धिक-नोअभवसिद्धिकनी पेठे (सू० २४) अचरम समजवा. ७ ८ कायद्वार. २९. 'सकषायी यावत्-लोभकषायी सर्वस्थानोमा आहारकनी पेठे समजवा. अकषायी-जीव अने सिद्ध ए बन्ने चरम नथी पण अचरम छे. अने अकषायी मनुष्य कदाच चरम पण होय छे अने कदाच अचरम पण होय छे ८. शानदार ३०. ज्ञानी सर्वत्र सम्यग्दृष्टिनी पेठे बन्ने प्रकारना जाणवा. मतिज्ञानी यावत्-मनःपर्यवज्ञानी आहारकनी पेठे समजवा. विशेष ए के, जेने जे ज्ञान होय तेने ते कहे. केवलज्ञानी, नोसंज्ञी-नोअसंज्ञीनी पेठे अचरम जाणवा. तथा अज्ञानी यावत्-विभंगज्ञानी आहारकनी पेठे बन्ने प्रकारना समजवा. ९ १. योगदार. ३१. सयोगी यावत्-काययोगी आहारकनी पेठे समजवा. विशेष ए के, जेने जे योग होय ते तेने कहेवो अने. अयोगी नोसंबीनोअसंज्ञीनी पेठे जाणवा. १० . ३२. साकारोपयोगवाळा अने अनाकारोपयोगवाळा अनाहारकनी पेठे चरम अने अचरम जाणवा. ११ ११ साकारोपयोग बार. १२ वेदवार.' ३३. सवेदक यावत्-नपुंसकवेदवाळा आहारकनी पेठे जाणवा. अवेदक अकषायीनी पेठे समजवा. १२ १३ शरीरद्वार ३४. सशरीरी यावत्-कार्मणशरीरवाळा आहारकनी पेठे जाणवा. विशेष ए के, जेने जे शरीर होय तेने ते कहे. अशरीरी, नोभवसिद्धिक-नोअभवसिद्धिक सिद्धनी पेठे समजवा. १३ २८ * संयत जीव चरम अने अचरम बन्ने प्रकारे होय छे. जेने फरीथी संयतपणु प्राप्त थवानुं नथी ते चरम अने तेथी इतर अचरम कहेवाय छे. ए प्रमाणे मनुष्य संबन्धे पण जाणवू. असंयत पण आहारकनी पेठे चरम अने अचरम बन्ने प्रकारना होय छे. संयतासंयत-देशविरत पण ए प्रमाणे जाणवा, परन्तु देशविरतपणुं जीव, पंचेन्द्रिय तिर्यच अने मनुष्य एत्रणे स्थानके होय छे. नोसंयतासंयत-सिद्ध अचरम जाणवा. कारण के सिद्धत्व नित्य होवाथी तेनो चरम क्षण होतो नथी. २९ । सकषायी जीवादि कदाचित् चरम होय अने कदाचित् अचरम पण होय. जे निर्वाण पामशे ते चरम अने अन्य अचरम. ३.१ सम्यग्दृष्टिनी पेठे ज्ञानी जीव अने सिद्ध अचरम जाणवा. कारण के जीव ज्ञानावस्थाथी पडे तो पण तेने ते अवश्य फरीथी प्राप्त 'थाय छ माटे अचरम अने सिद्ध अवश्य ज्ञानावस्थामांज रहे छे माटे अचरम. बाकीना जेओने ज्ञानसहित नारकत्वादिनी प्राप्तिनो फरीथी असंभव छे ते चरम, तेथी अन्य मीजा अचरम. आभिनिबोधिक ज्ञानी आहारकनी पेठे चरम अचरम एम बन्ने प्रकारना जाणवा. तेमा जे आभिनियोधिकादि ज्ञानने केवलशाननी प्राप्ति थवाथी फरी नहि पामे ते चरम अने ते सिवाय यीजा ते अचरम. केवलज्ञानी अचरम होय छे. Jain Education international For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004643
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBechardas Doshi
PublisherDadar Aradhana Bhavan Jain Poshadhshala Trust
Publication Year
Total Pages442
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size15 MB
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