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________________ शतक १४ - उदेशक ६. भगवत्सुधर्मस्वामिप्रणीत भगवतीसूत्र. ३५३ 11 तस्स पासायवर्डिसगस्य उल्लोए पउमलयाभत्ति चित्ते, जाव- पडिरूवे । तस्स णं पासायवडेंसगस्स अंतो बहुसमरमणिजे भूमिभागे, जाय-मणीर्ण फासो, मणिपेडिया अजोयनिया जदा बेमाणियाणं तीसे णं मणिपेडिया उवरिं महंगे देवसयणजे विवर, सयणिजवन्नओ, जाव- पडिरूवे । तत्थ णं से सक्के देविंदे देवराया अट्ठहिं अग्गमहिसीहिं सपरिवाराहिं, होहि व अणिपाई नट्टाणिण य गंधज्ञाणिरण यसद्धि महयाहयनदृ० जाव दिखाई भोगभोगाई भुंजमाणे विहरह । - ४. [अ०] जाये ईसा देविंदे देवराया दिवाएं० [०] जहा सके तथा ईसाने वि निरवसेसं, एवं सकुमारेषि, नवरं पासायचसो छ जोयणसयाई उई उच्च लेणं, तिथि जोवणसयाई विक्खभेणं, मणिपेडिया तहेच अट्ठजोगणिया तीखे मणिपेडिया उचरिं एत्थ णं महेगं सीहासणं विउच्चर सपरिवारं भाणियां । तत्थ णं वर्णकुमारे देविंदे देवराया वाचत्तरीप सामाणियसाहस्सीहिं जाव - चउहिं बावत्तरीहि आयरक्खदेवसाहस्सीहि य बहूहिं सणकुमारकप्पवासीहिं वेमाणिएहिं देवेहि देवीहि यसद्धिं संपरिवुडे महया जाय-बिहरद एवं जहा संकुमारे तहा जाव पाणओ ओ, नवरं जो जस्ल परिवारो सो तस्स भाणियचो, पासायउच्चत्तं जं सपसु २ कप्पेसु विमाणाणं उच्चत्तं, अद्धद्धं वित्थारो, जाव - अच्यस्स नवजोयणसयाई उहूं उत्पत्तेणं, अद्धपंचमाई जोयणसवाई विषयांमेणं, तत्व णं गोयमा ! अधुर देविंदे देवराया दसाई सामाणियसादस्लीि जाव - विहरह, सेसं तं चेव । 'सेवं भंते ! सेवं भंते' ! त्ति । चोदसमस छट्टओ उद्देसो समत्तो । भूमिभाग कहेलो छे. [तेनुं वर्णन ] यावत् - 'मनोज्ञ स्पर्श होय छे' त्यां सुधी जाणवुं. ते चक्राकारवाळा ते स्थाननी बरोबर मध्यभागे एक मोटो प्रासादावतंसक - भूषणरूप सुन्दर प्रासाद विकुर्वे छे. ते उंचाइमां पांचसे योजन उंचो अने तेनो विष्कंभ - विस्तार अढीसो योजननो छे. ते प्रासाद अभ्युद्गत- अत्यन्त उंचो [अने प्रभाना पुंजवडे व्याप्त होवाथी जाणे हसतो होयनी ! ]- इत्यादि * प्रासादवर्णन जाणवु, यावत्तू - ते प्रतिरूप - सुंदर अने दर्शनीय छे. तथा ते प्रासादावतंसकनो उल्लोच - उपरनो भाग पद्म अने लताओना चित्रामणथी विचित्र अने यावद् - दर्शनीय छे. वळी ते प्रासादावतंसकनो अंदरनो भाग बराबर सम अने रमणीय छे, यावत्- 'त्यां मणिओनो स्पर्श होय छे' - त्यां सुधी वर्णन जागवली यां आठ योजन उंची एक मणिपीठिका छे, अने ते वैमानिकोनी मणिपीठिका जेवी जाणची, ते मणिपीठिकानी उपर एक मोटी देवशय्या विकुर्वे छे, ते देवशय्यानुं वर्णन यावत् 'प्रतिरूप' छे त्यां सुधी कहेवुं. त्यां देवनो इन्द्र अने देवनो राजा शक्र पोतपोताना परिवारयुक्त आठ पट्टराणीओ साथै गन्धर्वानीक अने नाज्यानीक ए वे प्रकारना अनीकली साथे मोटेची आहत बगाडेला नाव्य, गीत अने वादित्रना शब्दवडे यावत्-भोगववा योग्य दिव्य भोगोने भोगवतो विहरे छे. ४. [ प्र० ] हे भगवन् ! देवेन्द्र अने देवनो राजा ईशान दिव्य भोगोने भोगववा इच्छे प्यारे ते केवी रीते भोगवे ? [30] जेम शक्र संबन्धे कांतेम ईशान संबन्धे पण समग्र कहेतुं. ए प्रमाणे सनत्कुमारने विषे पण जाणवुं, परन्तु विशेष ए के के ए प्रासादावतंसक उंचाईमा छसो योजन अने पहोळाइमां त्रणसो योजन छे. तथा ते मणिपीठिकानी उपर एक मोटुं सिंहासन सपरिवार - पोताना परिवार ने योग्य आसन सहित विकुर्वे हे इयादि कहे. तेमां देवेन्द्र अने देवनो राजा सनत्कुमार महोंतेर हजार सामानिक देवो साधे, यावत्-बे खाख अपाशी हजार आत्मरक्षक देवो साथ अने सनकुमार कल्पमा रहेनारा घणा वैमानिक देवो अने देवीओ साधे परिवृत यह [मोटा गीत अने वादित्रना] शब्दोवडे यावत् - विहरे छे. ए प्रमाणे जेम सनत्कुमार संबन्धे कयुं, तेम यावत्-प्राणत तथा अच्युत देवलोक सुधी जाण. परन्तु विशेष एछे के, जेनो जेटली परिवार होय सेनो सेटलो कहेवो. पोत पोताना कल्पना विमानोनी उंचाइना जेटली प्रासादनी "उंचाई जाणवी, अने उंचाइना अडधा भाग जेटलो तेनो विस्तार जाणवो, यावत् - अच्युत देवलोकनो प्रासादावतंसक नवसो योजन उंचो छे, अने साठा चारसो योजन पहोलो छे. तेमां हे गौतम देवेन्द्र देवराज अच्युत दश हजार सामानिक देवो साधे यावद्विहरे छे. बाकी बधुं पूर्वं प्रमाणे जाणवुं. 'हे भगवन् ! ते एमज छे, हे भगवन् ! ते एमज छे' - एम कही यावद् - [ भगवान् गौतम] विहरे छे. चतुर्दश शतके षष्ठ उद्देशक समाप्त. ३ * प्रासादवर्णन संबन्धे जुओ-भग० सं० १ पृ० ३००. कुमारेन्द्र मात्र सिहासन प्रयोजन नथी है, परन्तु एक भईखाननी पेढे देवशय्या विभी कारण के ते सर्वमात्रची करतो होवाथीने + सनत्कुमारेन्द्रनो परिवार कह्यो छे, माहेन्द्रने सीतेर हजार सामानिक देवो अने बे लाख एंशी हजार अंगरक्षक देवो होय छे, ब्रह्मदेवलोकने साठ हजार, लान्तकने पचास हजार, शुक्रने चाळीश हजार, सहस्रारने श्रीश हजार, आणत प्राणतने वीश हजार भने आरण-अच्युतने दश हजार सामानिक देवो होय छे, अने तेथी चारगुणा आत्मरक्षक देवो जाणवा. , ॥ सनत्कुमार अने माहेन्द्र देवलोकना विमान छसो योजन उंचा छे, माटे तेना प्रासादनी उंचाइ पण छसो योजन जाणवी, ब्रह्म अने लान्तकने विषे सातसो योजन, म भने ससारने विषे आठो योजन आत प्राप्त भने धारण-अच्युतेन्द्रनादो योजना छे भने तेनो विचार भी भरो छे. यावत्-अच्युतनो नवसो योजन प्रासाद उंचो छे, अने तेनो विस्तार साडा चारसो योजन छे. आ अच्युत देवलोकने विषे अच्युतेन्द्र दश हजार सामानिक देवोनी साधे यावत् विहरे छे. अहिं एटलो विशेष छे के सनत्कुमारादि इन्द्रो सामानिकादि देवोना परिवार सहित चक्रना आकारवाळा स्थानने विषे जाय छे, कारण के तेओना समक्ष स्पर्शादि विषयोनो उपभोग करवो अविरुद्ध छे, शक्र अने ईशानेन्द्र परिवार सहित त्यां जता नथी, कारण के ते कायसेवी होवाथी तेओना समक्ष काय प्रतिचारणा ( कायद्वारा विषयोपभोग ) सेववो लज्जनीय अने अनुचित छे. टीका. ४५ भ० सू० -- For Private & Personal Use Only Jain Education International (शानेन्द्र भोग भोगके रो बवा इच्छे प्यारे से केवी भोगवे ? www.jainelibrary.org:
SR No.004642
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBechardas Doshi
PublisherDadar Aradhana Bhavan Jain Poshadhshala Trust
Publication Year
Total Pages422
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size15 MB
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