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________________ ३५० श्रीरायचन्द्र-जिनागमसंग्रहे शतक १४.-उद्देशक ५. वएज्जा । [प्र०] जे णं वीतीवपज्जा से णं तत्थ झियाएजा ? [उ०] नो तिणढे समढे, नो खलु तत्थ सत्थं कमति, से तेणTणं०, पवं-जाव थणियकुमारे । पगिदिया जहा नेरइया । ३. [प्र०] बेइंदिया गं भंते ! अगणिकायस्स मज्झमझेणं० १ [उ०] जहा असुरकुमारे तहा बेइंदिएवि, नवरं-प्र०] जे णं वीयीवएजा से णं तत्थ झियाएजा ? [उ०] हंता झियाएजा, सेसं तं चेव, एवं जाव-चउरिदिए । । ४.प्र०] पंचिंदियतिरिक्खजोणिए णं भंते ! अगणिकाय-पुच्छा । [उ०] गोयमा ! अत्थेगतिए वीइवरजा, अत्थेगतिए नो वीइवरजा । [प्र.] से केण?णं० १ [उ.] गोयमा! पंचिंदियतिरिक्खजोणिया दुविहा पण्णत्ता, तंजहा-विग्गहगतिसमावनगा य अविग्गहगइसमावन्नगा य । विग्गहगइसमावन्नए जहेव नेरइए, जाव-'नो खलु तत्थ सत्थं कमइ' । अविग्गहगइसमावनगा पंचिंदियतिरिक्खजोणिया दुविहा पन्नत्ता, तंजहा-इढिप्पत्ता य अणिढिप्पत्ता य । तत्थ गंजे से इहिप्पत्ते पंचिंदियतिरिक्खजोणिए से णं अत्थेगइए अगणिकायस्स मज्झमझेणं वीयीवएजा, अत्थेगइए नो वीयीवरजा । [प्र.] जेणं वीयीवएजा से णं तत्थ झियाएजा ? [उ०] नो तिणढे समढे, नो खलु तत्थ सत्थं कमइ । तत्थ णं जे से अणिढिप्पत्ते पंचिंदियतिरिक्खजोणिए से णं अत्थेगतिए अगणिकायस्स मज्झमझेणं वीयीवएजा, अत्थेगतिए नो वीइवरजा । [प्र०] जेणं वीयीवएजा से णं तत्थ झियाएजा ? [उ०] हंता झियाएजा, से तेणटेणं जाव-'नो वीयीवएजा' एवं मणुस्से वि । वाणमंतर-जोइसिय-वेमाणिए जहा असुरकुमारे। ५. नेरतिया दस ठाणाई पञ्चणुब्भवमाणा विहरंति, तंजहा-१ अणिट्ठा सद्दा, २ अणिट्ठा रूवा, ३ अणिट्ठा गंधा, ४ अणिट्ठा रसा, ५ अणिट्ठा फासा, ६ अणिट्ठा गती, ७ अणिट्ठा ठिती, ८ अणिढे लावन्ने, ९ अणिटे जसो-कित्ती, १० अणिटे उट्ठाण-कम्म-बल-चीरिय-पुरिसक्कारपरकमे। एकेन्द्रियो. बेइन्द्रिय पंचेन्द्रिय तिर्यंच अग्निनी बच्चे थईने - जाय! अर्थ यथार्थ नथी. केमके तेने अग्नि वगेरे शस्त्र असर करतुं नथी. ते हेतुथी हे गौतम! एम का छे के 'कोइ एक [असुरकुमार जाय अने कोइ एक न जाय.' ए प्रमाणे यावत्-स्तनितकुमारो सुधी जाणवू. एकेन्द्रियो “संबन्धे नैरयिकनी पेठे जाणQ. ३. [प्र०] हे भगवन् ! बेइन्द्रिय जीवो अग्निकायनी मध्यमां थईने जाय ? [उ०] जेम असुरकुमारो संबन्धे कर्तुं तेम बेइन्द्रिय संबन्धे कहे. परन्तु विशेष ए छे के, [प्र०] 'जे बेइन्द्रिय अग्नि वच्चे थईने जाय, ते त्यां बळे ? [उ०] हा, ते त्यां बळे'-एम कहे. अने बाकी बधुं पूर्वे कह्या प्रमाणे यावत्-चउरिन्द्रिय सुधी जाणवू. ४. [अ०] हे भगवन् ! पंचेन्द्रिय तिर्यग्योनिक जीव अग्निनी वच्चे थईने जाय?-ए प्रश्न. [उ०] हे गौतम ! कोइ एक जाय अने कोइ एक न जाय. [प्र०] हे भगवन् ! ए प्रमाणे आप शा हेतुथी कहो छो के 'कोइ एक जाय अने कोइ एक न जाय' ? [उ०] हे गौतम ! पंचेन्द्रियतियंचयोनिको बे प्रकारना कह्या छे, ते आ प्रमाणे-विग्रहगतिने प्राप्त थयेला अने अविग्रहगतिने प्राप्त थयेला. तेमां जे विग्रहगतिने प्राप्त थयेला पंचेन्द्रियतिर्यंचयोनिको छे ते नैरयिकनी पेठे जाणवा, यावत्-'तेने शस्त्र असर करतुं नथी.' जे पंचेन्द्रियतियचो अविग्रहगतिने प्राप्त थयेला छे ते बे प्रकारना कह्या छे, ते आ प्रमाणे-ऋद्धिप्राप्त (वै क्रियल ब्धियुक्त) अने ऋद्धिने अप्राप्त (वैक्रियलब्धिरहित). तेमां जे पंचेन्द्रियतिथंचो ऋद्धिने प्राप्त थयेला छे, तेमांथी कोइ एक अग्निनी वच्चे थइने जाय अने कोइ एक अग्निनी बच्चे थईने न जाय. [प्र०] जे अग्निनी वच्चे थईने जाय छे ते त्या बळे ? [उ०] ए अर्थ समर्थ-यथार्थ नथी, केमके तेने शस्त्र असर करतुं नथी. तेमां जे पंचेन्द्रिय तिर्यचो ऋद्धिने प्राप्त थयेला नथी तेमाथी कोइ एक अग्निनी बच्चे थईने जाय अने कोइ एक न जाय. [प्र०] जे जाय ते बळे ! [उ.] हा, बळे; माटे हे गौतम ! ते हेतुधी एम कडं छे के, यावत्-'कोइ एक अग्निनी वच्चे थइने जाय अने कोइ एक न जाय' ए प्रमाणे मनुष्य संबन्धे पण जाणवू. जेम असुरकुमारो संबन्धे कह्यु, तेम वानव्यंतर, ज्योतिपिक अने वैमानिक संवन्धे पण कहेवं. ५. नारको दश स्थानोने अनुभवता विहरे छे, ते आ प्रमाणे-१ अनिष्ट शब्द, २ अनिष्ट रूप, ३ अनिष्ट गंध, ४ अनिष्ट रस, ५ अनिष्ट स्पर्श; ६ 'अनिष्ट गति, ७ अनिष्ट स्थिति, ८ अनिष्ट लावण्य, ९ अनिष्ट यशःकीर्ति अने १० अनिष्ट उत्थान, कर्म, बल, वीर्य तथा पुरुषकारपराक्रम. नोरको दश स्था करे छे. २* ग्रिगतिप्राप्त एकेन्द्रिय जीवो अग्नि वचे थईने जाय, अने सक्षम होवाथी ते बळे नाहि. अविप्रहगतिप्राप्त एकेन्द्रियो अनि वचे थईने जता नथी, कारण के तेओ स्थावर छे. तेजः (अमि) अने वायु गतित्रस होवाथी तेनुं अमिमध्यमां थईने जQ संभवे छे, परन्तु ते अहिं विवक्षित नथी, अहिं तो स्थावरपणानी विवक्षा छे अने तेथी तओमां गतिनो अभाव छे. तथा वाय्वादिनी प्रेरणाथी पृथिव्यादिनुं अग्निमध्यमा गमन संभवित छे, परन्तु अहिं खातश्यकृत गमन विवक्षित होवाथी तेनुं स्वतंत्रपणे अग्मिने विषे गमन संभवित नथी-टीका. ५ अनिष्टगति नारकोनी अप्रशस्तविहायोगतिरूप के नरकगतिरूप अनिष्ट गति, नरकमा रहेवारूप अथवा नरकायुरूप अनिष्ट स्थिति, अनिष्ट लावण्यशरीरनो बेडोळ आकारविशेष, अपयश अने अपकीर्तिरूप अनिष्ट यशःकीर्ति, वीर्यान्तरायना क्षयोपशमादिथी उत्पन्न थयेल उत्थानादिवीर्यविशेष अनिष्टनिन्दित छे. Jain Education international For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004642
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBechardas Doshi
PublisherDadar Aradhana Bhavan Jain Poshadhshala Trust
Publication Year
Total Pages422
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size15 MB
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