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________________ ३४० श्रीरायचन्द्र-जिनागमसंग्रहे शतक १४.-उद्देशक १. ३. [प्र०] अणगारे णं भंते ! भावियप्पा चरमं असुरकुमारावासं वीतिकंते, परमं असुर० [उ०] एवं चेव, एवं जावथणियकुमारावासं, जोइसियावासं, एवं वेमाणियावासं, जाव-विहरति । ४.प्र० नेरइयाणं भंते! कह सीहा गती, कहं सीहे गतिविसर पण्णत्ते [उ.] गोयमा से जहानामए-केहपुरिसे तरुणे बलवं जुगवं जाव-निउणसिप्पोवगए आउट्टियं बाहं पसारेजा, पसारियं वा बाहं आउंटेजा, विक्खिण्णं वा मुदि साहरेजा, साहरियं वा मुट्टि विक्खिरेजा, उन्निमिसियं वा अच्छि णिम्मिसेजा, निम्मिसियं वा अच्छि उम्मिसेज्जा, भवे एयारूवे ? णो तिणढे समढे, नेरइया णं एगसमएण वा दुसमएण वा तिसमएण वा विग्गहेणं उववजंति; नेरइयाणं गोयमा! तहा सीहा गती, तहा सीहे गतिविसर पण्णत्ते; एवं जाव-वेमाणियाणं, नवरं एगिदियाणं चउसमइए विग्गहे भाणियो । सेसं तं चेव । ५. [प्र०) नेरइया णं भंते ! किं अणंतरोववन्नगा, परंपरोववन्नगा, अणंतरपरंपरअणुववन्नगा ? [उ०] गोयमा ! नेरहया अणंतरोववन्नगा वि, परंपरोववनंगा वि, अणंतरपरंपरअणुववन्नगा वि [प्र०] से केणटेणं भंते ! एवं वुच्चइ-जाव-अणंतरपरंपरअणुववन्नगा वि ? [उ०] गोयमा! जे णं नेरइया पढमसमयोववनगा ते णं नेरइया अणंतरोववन्नगा, जेणं नेहया अपढम अमरकुमारावास. ३. [प्र०] हे भगवन् ! भावितात्मा अनगार चरम-आ तरफ छेल्ला असुरकुमारावासने ओळगी गयो छे अने परम असुरकुमारावासने प्राप्त थयो नथी, ते जो आ अवसरे मरण पामे तो ते क्या उपजे ? [उ०] ए प्रमाणे जाणवू. ए रीते यावत्-स्तनितकुमारावास, ज्योतिषिकावास अने वैमानिकावासपर्यन्त यावत्-विहरे छे' त्यां सुधी जाणवु. नारकोनी शीघ गति. ४. प्रि०] हे भगवन् ! नैरयिकोनी केवा प्रकारनी शीघ्र गति कही छे, अने तेओनो केवा प्रकारनी शीघ्र गतिनो विषय (समय) कह्यो छे ! [उ०] हे गौतम ! जेम कोई एक पुरुष तरुण, बलिष्ट, युगवाळो (विशिष्ट बलवाळा सुषमादिकाळमां उत्पन्न थयेलो) अने यावत्निपुण शिल्पशास्त्रनो ज्ञाता होय; ते पोताना संकुचित हाथने (त्वराथी) पसारे अने पसारेला हाथने संकुचित करे, पसारेली मुठिने संकुचित करे, अने संकोचेली मुठीने पसारे-उघाडे, उघाडेली आंखने मींची दे अने मींचेली आंखने उघाडे, हे गौतम ! (नारकोनी ) आवा प्रकारनी-शीघ्रगति अथवा शीघ्र गतिनो विषय होय ? आ अर्थ समर्थ-यथार्थ नथी. नारको एक समयनी (ऋजुगतिवडे) अने बे समय के त्रण समयनी *विग्रहगतिवडे उत्पन्न थाय छे. हे गौतम! तेवा प्रकारे (एक समय, बे समय के त्रण समयनी) नैरयिकोनी शीघ्रगति अथवा शीघ्रगतिनो विषय कह्यो छे. ए प्रमाणे यावद्-वैमानिको सुधी जाणवू. परन्तु विशेष ए छे के, एकेन्द्रियोने (उत्कृष्ट ) चार समयनी विग्रहगति कहेवी. बाकी (पृथिवीकायिकादि दंडकने विषे ) बधुं पूर्व प्रमाणे जाणवू. माणपु. नारको अनन्तरो. पपन, परंपरोपप के मनन्तरपरपरानुपपत्र । ५. [प्र०] हे भगवन् ! शुं नैरयिको अनन्तरोपपन्न (जेओनी उत्पत्तिमा समयादिकनुं अन्तर नथी, अर्थात् नारकभवना प्रथम समये उत्पन्न धयेला एवा) , परंपरोपपन्न (जेओनी उत्पत्तिने बे-त्रण-इत्यादि समयनी परंपरा थयेली छे तेवा) छे, अनन्तरपरंपरानुपपन्न (जेओनी अनन्तर अने परम्पर-ए बन्ने प्रकारनी उत्पत्ति थयेली नथी एवा ) छे ? [उ०] हे गौतम ! नैरयिको अनन्तरोपपन्न छे, परंपरोपपन्न छे अने अनन्तरपरंपरानुपपन्न पण छे. [प्र०] हे भगवन् ! ए प्रमाणे शा हेतुथी कहो छो के, नैरयिको यावत्-अनन्तरपरंपरानुपपन्न छे ! [उ०] हे गौतम ! जे नैरयिको प्रथम समये उत्पन्न थया छे तेओ 'अनन्तरोपपन्न' कहेवाय छे, जे नैरयिकोनी उत्पत्तिमा प्रथम समय शिवाय द्वितीयादि समयो व्यतीत थया छे तेओ 'परंपरोपपन्न' कहेवाय छे अने जे नैरयिको विग्रहगतिने प्राप्त थया छे ते 'अनन्तरपरंपरानुपपन्न' कहेवाय छे, ___ ४ * अहिं एक भवथी भवान्तरमा गमनकरवारूप गति जाणवी. नारको नरकगतिमां एक समय, बे समय अने त्रण समयनी गतिवडे उत्पन्न थाय छे. तेमा ऋजुगति एक समयनी होय छे, अने विप्रहगति बे अथवा त्रण समयनी होय छे ते शीघ्रगति कहेवाय छे. बाहुप्रसारणादि गतिनो काल असंख्य सम. यनो छे, तेथी तेवा प्रकारनी गतिने शीघ्रगति न कहेवाय. त्यारे जीव समश्रेणिए आवेला उत्पत्ति स्थानके जइने उपजे छे त्यारे तेने ऋजुगति एक समयनी होय छे, पण ज्यारे उत्पत्तिस्थानक समश्रेणिमा होतुं नथी त्यारे विग्रहगति बे के त्रण समयनी होय छे भने एकेन्द्रिय जीवने उत्कृष्ट चार समयनी विग्रहगति होय छे; तेमां बे समयनी विग्रहगति आ प्रमाणे-ज्यारे कोइ जीव भरतक्षेत्रनी पूर्व दिशाथी नरकमा पश्चिम दिशाए उत्पन्न थाय, त्यारे प्रथम समये नीचे भावे, पीजे समये तिर्जा उत्पत्तिस्थानके जाय. ए रीते बे समयनी विग्रहगति जाणवी. त्रण समयनी विग्रहगति आ प्रमाणे-ज्यारे कोइ जीव भरतनी पूर्व दिशाथी मरकमा वायव्य दिशा तरफ उपजे त्यारे ते एक समये समश्रेणिद्वारा नीचे आवे, बीजे समये तिर्यग् पश्चिम दिशाए जाय, त्रीजा समये तिर्यग् वायव्य दिशाने विषे उत्पतिस्थानके जइने उपजे. ए प्रमाणे नारकोनो शीघ्रगतिकाल अथवा आवा प्रकारनी शीघ्रगति कही. एकेन्द्रियोने चार समयनी विप्रहगति आ प्रमाणे होय छे-एक समयमा प्रसनाडीथी बहार अधोलोकनी विदिशाथी दिशा तरफ जाय, केमके जीवनी गति श्रेणिने अनुसारे होय छे. बीजा समये लोकना मध्यभागमा प्रवेश करे, त्रीजा समये उंचे (ऊर्ध्वलोकमां ) जाय, अने चोथे समये प्रसनाडीथी नीकळी दिशाने विषे व्यवस्थित उत्पत्तिस्थाने जाय. आ वात सामान्यरीते घणा जीवने आश्रयी कही. अन्यथा एकेन्द्रियने पांच समयनी विग्रहगति संभवे छे. ते था प्रमाणे-१सनाडीथी बहार अधोलोकनी विदिशाथी दिशा तरफ जाय, २ बीजा समये लोकमा प्रवेश करे, ३त्रीजा समये ऊर्ध्वलोकमा जाय, ४ चोथा समये त्यांथी दिशा तरफ जाय, अने ५ पांचमा समये विदिशामा रहेला उत्पत्तिस्थानके जाय. एम पांच समयनी विप्रहगति कही. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004642
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBechardas Doshi
PublisherDadar Aradhana Bhavan Jain Poshadhshala Trust
Publication Year
Total Pages422
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size15 MB
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