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________________ शतक १३.-उद्देशक ४. भगवत्सुधर्मस्वामिप्रणीत भगवतीसूत्र. ३२१ दोन्नि, सिय तिन्नि, एवं अहम्मत्थिकायस्स वि, एवं आगासस्थिकायस्स वि, सेसं जहेव दोण्ड, एवं एकेको वडियष्ठो पएसो आइल्लुपहिं तिहिं अत्थिकारहि, सेसेहिं जहेव दोण्हं जाव-दसण्हं सिय एको, सिय दोन्नि, सिय तिनि, जाव-सिय दस । संखेजाणं सिय पक्को, सिय दोन्नि, जाव-सिय दस, सिय संखेजा । असंखेज्जाणं सिय एको, जाव-सिय संखेजा, सिय असंखेजा। जहा असंखेजा एवं अणंता वि। ३९. प्र०] जत्थ णं भंते ! एगे अद्धासमए ओगाढे तत्थ केवतिया धम्मत्थि०१ [उ०] एको। प्र०] केवतिया अहम्मत्थि० १ [उ०] एक्को। [प्र०] केवतिया आगासत्थि० ? [उ०] एको । [40] केवइया जीवत्थि०१ [उ०] अणंता, एवं जावअद्धासमया। ४०. [प्र०] जत्थ णं भंते ! धम्मत्थिकाए ओगाढे तत्थ केवतिया धम्मत्थिकायपदेसा ओगाढा ? [..] नत्यि एको वि । [प्र०] केवतिया अहम्मत्थिकाय ? [उ०] असंखेजा। [प्र०] केवतिया आगासत्थि० १ [उ०] असंखेजा। [प्र०] केवतिया जीवत्थिकाय ? [उ०] अणंता । एवं जाव-अद्धासमया । ४१. प्र०] जत्थ णं भंते ! अहम्मत्थिकाए ओगाढे तत्थ केवतिया धम्मत्थिकाय० १ [उ०] असंखेजा । [प्र०] केवतिया अहम्मत्थि०१[उ०] नत्थि एको वि । सेसं जहा धम्मत्थिकायस्स, एवं सवे, सटाणे नत्थि एको विभाणियचं, परदाणे आदिल्लगा तिन्नि असंखेजा भाणियचा, पच्छिल्लगा तिन्नि अणंता भाणियवा जाव-अद्धासमओ ति । जाव-[प्र०] केवतिया अद्धासमया ओगाढा! [उ०] नत्थि एको वि। कायना प्रदेशने अवगाहीने रहे त्यारे तेने विषे एक धर्मास्तिकायनो प्रदेश अवगाहीने रहे, ज्यारे बे आकाशास्तिकायना प्रदेशने अवगाहीने रहे त्यारे त्यां बे धर्मास्तिकायना प्रदेशो रहे, अने ज्यारे त्रण आकाशास्तिकायना प्रदेशोने अवगाहीने रहे त्यारे त्या त्रण धर्मास्तिकायना प्रदेशो रहे.] ए प्रमाणे अधर्मास्तिकाय अने आकाशास्तिकायना संवन्धे कहे. बाकी जीवास्तिकाय, पुद्गलास्तिकाय अने अद्धासमयने आश्रयी जेम बे पुद्गलप्रदेशसंबन्धे कयुं तेम त्रण पुद्गलप्रदेश संबन्धे पण कहे. [अर्थात्-त्रण पुद्गल प्रदेशने स्थाने अनन्त जीवप्रदेशो, अनन्त पुद्गलपरमाणुओ अने अनन्त अद्धासमय अवगाढ होय.] ए प्रमाणे आदिना त्रण अस्तिकायने विषे एक एक प्रदेश वधारवो, बाकीनाने विषे जेम बे पुद्गलांस्तिकायना प्रदेशसंबन्धे कयुं तेम यावत्-दश प्रदेश संबन्धे पण कहे. एटले ज्यां पुद्गलास्तिकायना दश प्रदेशो अवगाढ होय त्या धर्मास्तिकायनो कदाचित् एक प्रदेश, कदाचित् बे प्रदेश, कदाचित् त्रण प्रदेश, यावत्-कदाचित् दश प्रदेशो अवगाढ होय. ज्या संख्याता पुद्गलास्तिकायना प्रदेशो अवगाढ होय त्यां धर्मास्तिकायनो कदाचित् एक प्रदेश, कदाचित् बे प्रदेश, यावत्-कदाचित् दश प्रदेशो, यावत्-संख्याता प्रदेशो अवगाढ होय. असंख्याता पुद्गलास्तिकायना प्रदेशो ज्यां अवगाढ-रहेला होय त्यां धर्मास्तिकायनो एक प्रदेश, यावत्-कदाचित् संख्याता प्रदेशो, अने कदाचित् असंख्याता प्रदेशो अवगाढ होय. जेम असंख्याता पुद्गलास्तिकायना प्रदेशो माटे. का तेम अनन्त प्रदेशो माटे पण जाणवू. [अर्थात् ज्यां पुद्गलास्तिकायना अनन्त प्रदेशो अवगाढ होय त्यां धर्मास्तिकायना कदाचित् एक, यावत्-संख्याता अने यावत्-असंख्याता प्रदेशो रहेला होय.] ३९. [प्र०] हे भगवन् ! ज्यां एक अद्धासमय अवगाढ होय त्यां केटला धर्मास्तिकायना प्रदेशो रहेला होय ! [उ०] एक प्रदेश क मबासमय. रहेलो होय. प्र० केटला अधर्मास्तिकायना प्रदेशो रहेला होय ! उ०] एक प्रदेश रहेलो होय. प्रि०ा केटला आकाशास्तिकायना प्रदेशो रहेला होय ! [उ०] एक प्रदेश रहेलो होय. [प्र०] केटला जीवास्तिकायना प्रदेशो रहेला होय ? [उ०] अनन्त प्रदेशो रहेला होय. ए प्रमाणे यावत् अद्धासमय सुधी जाणवू. [अर्थात् पुद्गलास्तिकाय अने अद्धासमयो अनन्ता रहेला होय.] ____४०. [प्र० ] हे भगवन् ! ज्यां एक धर्मास्तिकाय अवगाढ होय त्यां केटला धर्मास्तिकायना प्रदेशो रहेला होय ! [उ०] त्यां धर्मा- एक धर्मास्तिकाय. स्तिकायनो एक पण प्रदेश रहेलो न होय. [प्र०] केटला अधर्मास्तिकायना प्रदेशो रहेला होय ! [उ०] असंख्याता प्रदेशो रहेला होय. [प्र०] केटला आकाशास्तिकायना प्रदेशो रहेला होय ! [उ०] असंख्याता प्रदेशो रहेला होय. [प्र०] केटला जीवास्तिकायना प्रदेशो होय ! [उ०] अनन्ता होय. ९ प्रमाणे यावत्-अद्धासमय सुधी जाणवू. ___४१. [प्र०] हे भगवन् ! ज्या एक अधर्मास्तिकाय अवगाढ-रहेलो होय त्यां केटला धर्मास्तिकायना प्रदेशो रहेला होय ? [उ०] एक मर्मास्तिकाप. असंख्याता प्रदेशो रहेला होय. [प्र.] केटला अधर्मास्तिकायना प्रदेशो रहेला होय! [उ०] एक पण प्रदेश न होय. बाकी [आकाशास्तिकाय, पुद्गलास्तिकाय अने अद्धासमयने] धर्मास्तिकायनी पेठे जाणवं. सर्व धर्मास्तिकायादि द्रव्यने 'खस्थानके एक पण प्रदेश नथी'ए प्रमाणे कहेवू, अने परंस्थानके आदिना त्रण द्रव्यने (धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय अने आकाशास्तिकायने) 'असंख्याता' कहेवा, अने पाछळना त्रण द्रव्यने 'अनन्ता' यावत्-अद्धासमय सुधी कहेवा. यावत्-प्र०] केटला अद्धासमय अवगाढ होय : उ०] एक पण नथी. ४१ भ. सू. . For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.004642
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBechardas Doshi
PublisherDadar Aradhana Bhavan Jain Poshadhshala Trust
Publication Year
Total Pages422
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size15 MB
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