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________________ बत्तीसइमो उद्देसो. १. तेणं कालेणं तेणं समपणं वाणियग्गामे णामं नयरे होत्था, । वन्नओ । दैतिपलासए चेइए । सामी समोसढे । परिसा निग्गया। धम्मो कहिओ। परिसा पडिगया । तेणं कालेणं तेणं समएणं पासावच्चिजे गंगेए णाम अणगारे जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छइ, तेणेव उवागच्छित्ता समणस्स भगवओ महावीरस्स अदूरसामंते ठिचा समणं भगवं महावीरं एवं दासी २. [प्र०] संतरं भंते ! नेरइया उववजंति, निरंतरं नेरइया उववजंति ? [उ०] गंगेया ! संतरं पि नेरइया उववजंति, निरंतरं पि नेरइया उववजंति । ३. [प्र०] संतरं भंते ! असुरकुमारा उववजंति, निरंतरं असुरकुमारा उववजंति ? [उ०] गंगेया! संतरं पि असुरकुमारा उववजंति, निरंतरं पि असुरकुमारा उववजंति; एवं जाव थणियकुमारा। ४. [प्र०] संतरं भंते ! पुढविक्काइया उववजंति, निरंतरं पुढविक्काइया उववजंति ? [उ०] गंगेया! नो संतरं पुढविकाइया उववजंति, निरंतरं पुढविक्काइया उववजंति; एवं जाव वणस्सइकाइया, बेइंदिया जाव वेमाणिया एते जहा णेरइया । ५. [प्र०] संतरं भंते ! नेरइया उच्चइंति, निरंतरं नेरइया उच्चटुंति ? [उ०] गंगेया! संतरं पि नेरइया उच्चदंति, निरंतर पि नेपया उधटुंति; एवं जाव थणियकुमारा । बत्रीशमो उद्देशक. वाणिज्यग्राम. १.ते काले, अने ते समये वाणिज्यग्राम नामे नगर हतुं. वर्णन. दूतिपलाश नामे चैत्य हतुं. श्रीमहावीर स्वामी समवसर्या. पर्षद् वांदवा निकळी. धर्मोपदेश कर्यो. पर्षद् विसर्जित थइ. ते काले-ते समये श्रीपार्श्वप्रभुना शिष्य गांगेय नामे अनगार ज्यां श्रमण भगवान् गांगेयना प्रश्नो. महावीर विराजमान हता त्यां आव्या, आवीने श्रमण भगवंत महावीरनी पासे थोडे दूर बेसीने तेणे श्रमण भगवंत महावीरने ए प्रमाणे कडंनैरयिको सान्तर २. प्र०] हे भगवन्! नैरयिको *सांतर (अन्तरसहित) उत्पन्न थाय छे के निरंतर (अन्तर शिवाय) उत्पन्न थाय छे! [उ०] हे गांगेय! नैरयिको सांतर पण उत्पन्न थाय छे अने निरंतर पण उत्पन्न थाय छे. थाय । अमरकुमार. ३. [प्र०] हे भगवन्! असुरकुमारो सांतर उत्पन्न थाय छे के निरंतर उत्पन्न थाय छे ? [उ०] हे गांगेय! असुरकुमारो सांतर पण उत्पन्न थाय छे, अने निरंतर पण उत्पन्न थाय छे. ए प्रमाणे यावत् स्तनितकुमारो सुधी जाणवू. पृथिवीकायिको. ४. [प्र०] हे भगवन् ! पृथिवीकायिक जीवो सान्तर उत्पन्न थाय छे के निरन्तर उत्पन्न थाय छे? [उ०] हे गांगेय! पृथिवीकायिक वत् जीवो सान्तर उत्पन्न थता. नथी, पण निरंतर उत्पन्न थाय छे. ए प्रमाणे यावद् वनस्पतिकायिक जीवो सुधी जाणवू. बेइन्द्रिय जीवोथी मांडी वैमानिको. यावद् वैमानिको नैरयिकोनी पेठे (सू० २) जाणवा. नैरयिको अने यावत् ५. [प्र०] हे भगवन् ! नैरयिको सांतर च्यवे छे के निरंतर च्यवे छे ? [उ० हे गांगेय! नैरयिको सांतर पण च्यवे छे अने निरंतर स्खनितकुमारनु सा- पण च्यवे छे. ए प्रमाणे यावत् स्तनितकुमार सुधी जाणवू. न्तर भने निरंतर च्यवन अयं पाठो नास्ति घ । २-पलासे चे-घ-ङ। ३-गच्छइत्ता ग-घ-ङ । ४ वयासी ग-घ-ङ। ५ सांतरं क-ख । ६ उववर्ट-घ। २.* जे उत्पत्तिमा समयादिकालनु अन्तर-व्यवधान होय ते सान्तर कहेवाय छे. तेमां एकेन्द्रियो प्रतिसमय उत्पन्न थता होवाथी तेओ सान्तर उत्पन्न थता नथी, पण निरन्तर उपजे छे. ते शिवाय बीजा जीवोनी उत्पत्तिमा अन्तरनो संभव होवाथी तेओ सान्तर अने निरन्तर-ए बने प्रकारे उपजे छे. -टीका. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.004642
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBechardas Doshi
PublisherDadar Aradhana Bhavan Jain Poshadhshala Trust
Publication Year
Total Pages422
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size15 MB
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