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________________ . श्रीरायचन्द्र-जिनागमसंग्रहे शतक ८.-उद्देशक ९. ३१. [प्र०] ओरालियसरीरप्पओगबंधे णं भंते ! कालओ केवञ्चिरं होइ ? [उ०] गोयमा! सबबंधे एक समय, देसबंधे जहन्नेणं एक समयं, उक्कोसेणं तिन्नि पलिओवमाइं समयऊणाई । ३२. पगिदियओरालियसरीरप्पओगबंधे णं भंते! कालओ केवच्चिरं होइ ? [उ०] गोयमा! सच्चबंधे एकं समयं, देसबंधे जहन्नेणं एक्कं समयं, उक्कोसेणं बावीसं वाससहस्साई समयऊणाई । ३३. [प्र०] पुढविकाइयएगिदियपुच्छा । [उ.] गोयमा! सवबंधे एक समयं, देसबंधे जहन्नणं खुडागभवग्गहणं तिसमयऊणं, उक्कोसेणं बावीसं वाससहस्साई समयूणाई; एवं ससि सबबंधो पक्कं समयं, देसवंधो जेसि नत्थि वेउधियसरीरं तेसिं जहन्नेणं खुड्डागभवग्गहणं तिसमयूणं, उक्कोसेणं जा जस्स ठिती सा समयूणा कायदा । जेसिं पुण अत्थि वेउचियसरीरं तेसिं देसबंधो जहन्नेणं पकं समयं, उक्कोसेणं जा जस्स ठिती सा समयूणा कायदा, जाव मणुस्साणं देसबंधे जहन्नेणं एक समयं, उक्कोसेणं तिन्नि पलिओवमाई समयूणाई। ३४. [प्र०] ओरालियसरीरबंधंतरंणं भंते! कालओ केवञ्चिरं होइ ? [उ०] गोयमा सववन्धन्तरं जहन्नेणं खुडागभवग्गहणं तिसमयऊणं, उक्कोसेणं तेत्तीसं सागरोवमाइं पुषकोडिसमयाहियाई; देसबंधंतरं जहण्णेणं एकं समयं उक्कोसेणं तेत्तीसं सागरोवमाई तिसमयाहियाई।। ३५. [प्र०] एगिदियओरालियपुच्छा । [उ०] गोयमा! सधवंधंतरं जहण्णेणं खुड्डागभवग्गहणं तिसमयूणं, उक्कोसेणं बावीसं वाससहस्साई समयाहियाई, देसबंधंतरं जहणेणं एवं समयं, उक्कोसेणं अंतोमुहुत्तं । औदारिक शरीर ३१. [प्र०] हे भगवन् ! औदारिकशरीरप्रयोगबन्ध कालथी क्यां सुधी होय ? [उ०] हे गौतम ! *सर्वबन्ध एक समय, अने " देशबन्ध जघन्यथी एक समय, अने उत्कृष्ट एक समय न्यून त्रण पल्योपम सुधी होय छे. एकेन्द्रिक. ३२. [प्र०] हे भगवन् ! एकेन्द्रियऔदारिकशरीरप्रयोगबन्ध कालथी क्यां सुधी होय ! [उ०] हे गौतम! सर्वबन्ध एकसमय, अने देशबन्ध जघन्यथी एक समय, अने उत्कृष्ट एक समय न्यून बावीश हजार वर्ष सुधी होय छे. पृथिवीकायिक ३३. [प्र०] हे भगवन् ! पृथिवीकायिकएकेन्द्रियऔदारिकशरीरप्रयोगबन्ध संबंधे प्रश्न. [उ०] हे गौतम! सर्वबन्ध एक समय, अने देशबन्ध जघन्यथी त्रिण समय न्यून क्षुल्लक भव पर्यन्त, अने उत्कृष्ट एक समय न्यून बावीश हजार वर्ष सुधी होय छे. ए प्रमाणे सर्वजीवोनो सर्वबन्ध एक समय छे, अने देशबन्ध जेओने वैक्रियशरीर नथी तेओने जघन्यथी त्रण समय न्यून क्षुल्लक भव पर्यन्त होय छे, अने उत्कृष्टथी जेटली जेनी आयुष्यस्थिति छे, तेथी एक समय न्यून करवो. जेओने वैक्रियशरीर छे तेओने देशबन्ध जघन्यथी एक समय, अने उत्कृष्टथी जेटलुं जेनुं आयुष्य छे तेटलामांथी एक समय न्यून जाणयो, ए प्रमाणे यावद् मनुष्योनो देशबन्ध जघन्यथी एक समय, अने उत्कृष्टथी एक समय न्यून त्रण पल्योपम सुधी जाणवो. औदारिक शरीरक * ३४. [प्र०] हे भगवन् ! औदारिक शरीरना बन्धनुं अन्तर कालथी क्या सुधी होय ! [उ०] हे गौतम ! सर्वबन्धनुं अन्तर मना मन्तरनो जघन्यथी त्रण समय न्यून क्षुल्लक भवग्रहण पर्यन्त छे, अने उत्कृष्टथी समयाधिक पूर्वकोटी अने तेत्रीश सागरोपम छे. अने देशबन्धन अन्तर जघन्यथी एक समय, अने उत्कृष्टथी त्रण समय अधिक तेत्रीश सागरोपम छे. एकेन्द्रिय ३५. [प्र०] एकेन्द्रियऔदारिकशरीरबन्धसंबंधे प्रश्न. (उ०] हे गौतम! तेओना सर्वबन्धनुं अन्तर जघन्यथी त्रण समय न्यून क्षुल्लक भव पर्यन्त, अने उत्कृष्टथी समयाधिक बावीश हजार वर्ष सुधी होय छे. देशबन्धनुं अन्तर जघन्यथी एक समय, अने उत्कृष्टथी अंतर्मुहूर्त सुधीनुं छे. १ समयूणाई क। २ जस्स उक्कोसिया ठि-क-घ विनाऽन्यत्र । ३ -बंधतरे ण क विनाऽन्यत्र । ४ ति उक्को-क। ५ समजणं क।। ३१. * पुल्लाना दृष्टान्तथी सर्वबन्ध एकसमय छे. अने ज्यारे वायुकायिक के मनुष्यादि वैक्रिय शरीर करीने अने तेने छोडीने औदारिक शरीरनो एक समय सर्ववन्ध करे अने पुनः तेनो देशवन्ध करी एक समय पछी तुरतज मरण पामे त्यारे जघन्यथी एक समय देशबन्ध होय छे. औदारिकशरीरवाळानी त्रण पल्योपम उत्कृष्ट स्थिति छे, तेमां प्रथम समये तेओ सर्ववन्धक छे, अने पछी एक समय न्यून त्रण पल्योपम सुधी देशवन्धक छे.-टीका. ३३. 1 जे पृथिवीकायिक जीव त्रण समयनी विग्रहगतिए उत्पन्न थयो छे ते त्रीजे समये सर्ववन्धक छे, अने बाकीना समये क्षुल्लकभवप्रमाण पोताना जघन्य आयुषपर्यन्त देशबन्धक होय छे. माटे 'ते त्रणसमयन्यून क्षुल्लकभवपर्यन्त जघन्यथी देशबन्धक होय' एम कयुं छे.-टीका. ३४. 1 कोइ जीव मनुष्यादिगतिमा अविग्रह गतिए आवी अने त्यां प्रथम समये सर्वयन्धक थईने पूर्वकोटि वर्ष पर्यन्त त्यां रही तेत्रीश सागरोपमनी स्थितिवाळो नारक के सर्वार्थसिद्ध देव थाय, अने पछी ते त्रण समयनी विग्रहगतिए औदारिकशरीरधारी थाय, त्यां विग्रहगतिना बे समय अनाहारक होय अने त्रीजे समये ते औदारिक शरीरनो सर्वबन्धक थाय, हवे तेमां विग्रहगतिना बे समय अनाहारक छे तेमाथी एक समय पूर्वकोटीना सर्वबन्धस्थाने प्रक्षिमः करीए तेथी पूर्वकोटी पूर्ण थइ अने एक समय अधिक थयो. ए रीते सर्वबन्धनुं उत्कृष्ट अन्तर समयाधिक पूर्वकोटि अने तेत्रीश सागरोपम थाय छे.-टीका. Jain Education international For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004642
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBechardas Doshi
PublisherDadar Aradhana Bhavan Jain Poshadhshala Trust
Publication Year
Total Pages422
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size15 MB
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