SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 105
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ शतक ८.६. भगवत्सुधर्मस्वामिप्रणीत भगवतीसूत्र. ८५ ५. [०] निर्माणं गाहाबरकु पिंडबायपडियार मणुप्यचि केंद्र ती िपिंडे उपनिमंतेजा एवं आसो ! अप्पा भुंजाहि, दो थेराणं दलयाहि; से य ते पडिग्गहेजा, थेरा य से अणुगवेसेवा, सेसं तं चेव जाव परिट्ठावेयधे सिया, पजाब इसपिंडे उपनिमंतेजा यरं एवं आडसो अप्यणा भुजादि, नव थेराणं दलयादि सेसं तं चैव जाय परिट्ठाय सिया | ६. [अ०] निग्धं च णं गाहाबद० जाब के दोहिं पडिग्गनहेहिं उपनिमंतेजा - एगं माउसो ! सप्पा पडिभुंजादि एवं येराणं दरवाहि से प तं पडिमजा, तहेच जाव तं नो अप्पणा परिभुंगेखा, नो असि दावण सेसं तं घेव, जाब परिद्वय सिया एवं जाव दसाई पडिग्ाहेहिं एवं जहा पडिदेहिं एवं जहा पडिगहवत्तया भणिया, एवं गोच्छेरयहरण-चोलपट्टग-कंबल - लट्ठि - संथारगवत्तवया य भाणिया, जाव दसहि संथारपछि उवनिमंतेज्जा, जाव परिवेय सिया । 3 ७. [ प्र० ] निग्गंथेण य गाहावइकुलं पिंडवायपडियाए पविट्टेणं अन्नयरे अकिञ्चट्ठाणे पडिसेविए, तस्स णं एवं भवतिदेव ताव अहं एयरस ठाणस्स आलोएमि, पडिक्कमामि, निन्दामि गरिहामि, विउट्टामि, विसोहेमि, अकरणयाप अब्भुट्ठेमि, अहारियं पायच्छित्तं तवोकम्मं पडिवज्जामि, तओ पच्छा थेराणं अंतिअं आलोएस्सामि, जाव तवोकम्मं पडिवजिस्सामि । से य संपट्टिए, असंपत्ते थेरा य पुवामेव अमुहा सिया, से णं भंते! कि आराहए, विराहए ? [30] गोयमा ! आराहए, नो विराहए । ८. [प्र० ] से व संपट्टिए असंपते अप्पणा व पुवामेव अमुळे सिया से णं भंते कि आराहए, विराइए [30] 1 गोयमा ! आराहए, नो विराहए । ? ९. [ प्र० ] से य संपट्ठिए असंपत्ते थेरा य कालं करेजा, से णं भंते! किं आराहए, विराहए ? [उ०] गोयमा ! आराहए, नो विराहए । ५. [अ०] गृहस्थना घरे आहार ग्रहण करवाना इरादायी प्रवेश करेला निन्यने कोइ गृहस्य प्रण पिंड ग्रहण करवाने उपनि-पद्यात् देश मंत्रण करे के हे आयुधन् ! एक पिंड तमे खाजो अने बीना वे पिंड स्थविरोने आपनो पछी ते निर्बंध ते पिंडोने ग्रहण करे, अने स्थविरोनी तपास करे. बाकीनुं पूर्वसूत्रनी पेठे जाणवुं यावत् परठवे, ए प्रमाणे यावद् दश पिंडोने ग्रहण करवाने उपनिमंत्रण करे, परन्तु एम कहे के हे आयुष्मन् ! एक पिंड तमे खाजो अने बाकीना नव पिंड स्थविरोने आपजो, बाकी बधुं पूर्वनी पेठे जाणवुं, यावत् परठवे. मंत्रण. ६. [प्र० ] निर्बंथ यावत् गृहपतिना कुलमां प्रवेश करे अने कोइ गृहस्थ बे पात्र वडे तेने उपनिमंत्रण करे के - हे आयुष्मन् ! पात्रोनुं उपि एक पात्रनो तमे उपभोग करजो अने बीजुं पात्र स्थपिरोने आपजो. ते बन्ने पात्रोने ग्रहण करे, बांकीनुं ते प्रमाणे जागनुं यावत् पोते ते पात्रनो उपयोग न करे अने बीजाने आपे पण नहीं, बाकीनुं पूर्वनी पेठे जाणवुं यावत् ते पात्रने परठवे. ए प्रमाणे यावत् दस पात्र सुघी कहेवुं, जे प्रमाणे पात्रनी वक्तव्यता कही छे तेम गुच्छा, रजोहरण, चोलपट्ट, कंबल, दंड अने संस्तारकनी वक्तव्यता कहेवी, यावत् दश संस्तारकवडे उपनिमंत्रण करे, यावत् तेने परठवे. ७. [ प्र० ] कोई निर्ग्रन्थे गृहपतिना घरे आहार ग्रहण करवाना इरादाथी प्रवेश करता कोइ अकृत्य स्थाननुं प्रतिसेवन कयुं होय, पछी ते निर्मन्थना मनमो एम चाय के “प्रथम हुं अहींज आ अकार्य स्थाननुं आलोचन, प्रतिक्रमण, निन्दा अने गर्हा करूं, [तेना अनुबन्धने] छेदुं, विशुद्ध करूं, पुनः न करवा माटे तैयार थाउं, अने यथायोग्य प्रायश्चित्तरूप तप कर्मनो स्वीकार करूं. त्यार पछी स्थवि स्थविरो मूक पाय --- रोनी पासे जइने आलोचना करीश, यावत् तपकर्मनो स्वीकार करीश." [ एम विचारी ] ते निर्ग्रन्थ स्थविरोनी पासे जवा नीकळे अने त्यां पहोंच्या पहेला ते स्थविरो [ वातादि दोषना प्रकोपथी ] मूक थइ जाय-बोली न शके अर्थात् प्रायश्चित्त न आपी शके तो हे भगवन् ! शुं ते निर्ग्रन्थ आराधक छे के विराधक छे ! [उ०] हे गौतम! ते निर्ग्रन्थ आराधक छे पण विराधक नथी. (१) ८. [ प्र० ] हवे ते निर्ग्रन्थ स्थविरोनी पासे जाय अने त्यां पहोंच्या पहेला ते (निर्ग्रन्थ) मूक थइ जाय तो हे भगवन् ! शुं ते निर्मन्य मूक वाय. निर्मन्थ आराधक छे के विराधक छे ? [उ०] हे गौतम! ते निर्ग्रन्थ आराधक छे पण विराधक नथी. (२) काळ करे तो हे भगवन् ! ते निर्मन्थ स्थविरो काल करे. ९. [ प्र० ] ते निर्मन्थ स्थविरोनी पासे जवा नीकळे अने ते पहोंच्या पहेलां ते स्थविरो आराधक छे के विराधक ! [उ०] हे गौतम! ते निर्मन्थ आराधक हे पण विराधक नथी. (३) १ गोष्डग-ध । २ परिद्ववेयब्वे ङ । ३ अमुद्दा ग । Jain Education International माराधक भने विराधक. For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org/
SR No.004642
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBechardas Doshi
PublisherDadar Aradhana Bhavan Jain Poshadhshala Trust
Publication Year
Total Pages422
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy