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________________ शतक ३.-उद्देशक १. भगवत्सधर्मस्वामिप्रणीत भगवतीसूत्र. गमन नामना अनशननो आश्रय कर्यो. [ 'अणिंद 'त्ति] इंद्र विनानी होवाथी अनिंद्र, [ 'अपुरोहिअ'त्ति] शांतिकर्म करे ते पुरोहित, ज्यां आनंद्रा. इंद्र होय त्यां पुरोहित होय छे अने अहीं इंद्र नथी माटे ज पुरोहित नथी अने एवं छे माटे अपुरोहित, [ 'इंदाहीण 'त्ति ] इंद्रने तावे छे माटे अपुरोहिता. इंद्राधीन, [ 'इंदाहिट्ठिअ'त्ति ] इंद्रथी युक्त होवाथी इंद्राधिष्ठित, एम छे माटे ज कहे छे के, ['इंदाहीणकजत्ति जेनु कामकाज इंद्रने ताबे छ एवी. ठितिपकप्पंति ] बलिचंचा राजधानीमा रहेवा माटेनो संकल्प ते स्थितिप्रकल्प-तेने. ['ताए उक्विट्ठाए 'त्ति ] 'उत्कर्षवाळी ते देवगतिवडे' एम स्थिति प्रकल संबंध करवो, आकुलता होवाथी उतावळी, परंतु स्वाभाविक उतावळी नहीं. एवी गतिमां मानसिक चपलतानो संभव छ माटे कहे छे के, चपल गतिवडे अर्थात् शरीरनी चंचळतावाळी गतिवडे, चंड-रौद्र-भयानक-गतिवडे, एवा प्रकारना उत्कर्षवाळी छे माटे जयिनी (बीजी गतिओने जिती लेनार ) गतिवडे, उपायमा प्रवृत्ति करनारी होवाथी निपुण गतिवडे, श्रम रहित होवाथी सिंहनी जेवी गतिवडे, वेगवती गतिवडे, दिव्य गतिवडे, चालता चालतां वस्त्र वगेरे उडतां होवाथी उद्धृत गतिवडे अथवा उद्धत-दर्पवाळी-गतिवडे. ['सपक्खिं 'ति] जे स्थळे उत्तर, दक्षिण, पूर्व अने पश्चिमनां बधां पडखां सरखां होय ते सपक्ष, जे स्थळे बधी प्रतिदिशाओ सरखी होय ते सप्रतिदिक्. [ 'बत्तीसइविहं नट्टविहिं 'ति ] नाटकने लगती वस्तु बत्रीशजातः बत्रीश जातनी होबाथी बत्रीश जातनां नाटक. जेम राजप्रश्नीय (रायपसेणी) नामे अध्ययनमा नाटक-संबंधे जे कर्तुं छे तेम ज अहीं जाणवू. [ अटुं। बंधह 'त्ति ] प्रयोजन संबंधे निर्णय करो. निदान एटले एक जातनी प्रार्थना. ए ज वातने कहे छे के, ['ठिइपकप्पं 'ति ] ए बधुं पूर्वनी पेठे राजप्रश्नीर समजवू. - - - -- --- १. प्राकृतशैलीने लीधे अहीं 'इ'कार लागेलो छे अने तेथी ज 'सपखं'ने बदले 'सपक्खि' थयुं छे:-श्रीअभय २ राजप्रश्नीय ( रायपसेणी ) सूत्रमा नाटकना यत्रीशे प्रकारर्नु सविस्तर वर्णन आपेलुं छे अने ते ( क.आ.) पृ० ८५ थी ९५ सुधीमा तेमा ___ वर्णवाएलुं छे. ए वर्णनने मळतुं वर्णन, जीवाजीवाभिगम सूत्रमा ३ जी प्रतिपत्तिमां विजयदेवना अधिकारमा पण विस्तारपूर्वक आवेलं छे--(पृ. २४६२४७ समिति०) विस्तारना भयथी ते बधुं अहीं न जणावतां मात्र तेनां ३२ नामाने ज जणावीए छीए:-[अहीं जणावेला अभिनयोमाना जे जे अभिनयो महर्षिभरतना नाव्यशास्त्र साथे मळता आवे छे ते, नाम अने स्वरूप साथे सामेनी वाजुमां जण्याव्या छ.] रायपसेणी: भरतनुं नाट्यशास्त्रःभरते पोताना नाट्यशास्त्रमा अभिनयना चार प्रकार जणाव्या छः आंगिक, वाचिक, आहार्य, अने सात्विक. (" आशिको वाचिक व आहार्यः सात्विकस्तथा। शेयस्खभिनयो विप्राश्चतुर्धा परिकल्पितः-" ५। अध्याय-4) आंगिक एटले अंगनो अभिनय. वाचिक एटले वाचानो अभिनय. आहार्य एटले वेषनो अभिनय. सात्विक एटले सामान्य अभिनय. १ अष्ट मंगलना आकारोनो अभिनय. (१) स्वस्तिकाभिनय. नाट्यशास्त्रमा ससंयुत हस्तनो अभिनय तेर प्रकारनो दाव्यो छे. तेमा (२) श्रीवत्साभिनय. चोथो अभिनय स्वस्तिक छ अने तेरमो अभिनय वर्धमान छे. ते बनेनु ख(३) नन्दावताभिनय. रूप आ प्रमाणे छ:-" ज्यारे स्त्री, पोताना बन्ने हाथोने वांका अने उंचा (४) वर्धमानक-अभिनय. राखीने तथा डावा पडखामा लई जई मणिबंधमा विन्यस्त करे छे ते जा(५) भद्रासनाभिनय. तना शारीरिक अभिनयनुं नाम खस्तिक अभिनय छे.” १२८ (भना०अ० (६) कलशाभिनय. ९)" परामुख एवा बे हंसपक्षोना आकारनुं नाम वर्धमान-अभिनय छे. (७) मत्स्याभिनय. ज्यारे जाळीयान के झरुखानुं विघाटन करयुं होय छे त्यारे ए अभिनय (८) दर्पणाभिनय. करवामां आवे छे:” १४३ (भ. ना० अ०९) २. आवर्त, प्रत्यावर्त, श्रेणि, प्रतिश्रेणि, स्वस्तिक, पुष्प, माणवक, वर्धमा- सामे जणावेला स्वस्तिक अने वर्धमान-ए बन्नेनु खरूप उपर आवी गएवं नक, मत्स्याण्डक, मकराण्डक, जार, मार, पुष्पावली, पद्मपत्र, सागरतरंग, छे. नाट्यशास्त्रमा मकर अने पद्म-नामक-हस्ताभिनयनो उल्लेख छे. कदाच वासंतीलता अने पद्मलताना चित्रनो अभिनय. नामसाम्बने लीधे सामे जणावेला मकराण्डक अने पद्मलताना अभिनय साथे ते मळता होय एबुं धारी अहीं तेनु स्वरूप आपीए छीए:-" नीचे नमेला, उंचा अंगुठावाळा, उपरा उपर विन्यस्त अने प्रलंबित थएला बन्ने हाथने-ए जातमा हस्ताकारनुं नाम मकराभिनय छे.” (१३७ भ०मा००१) "पडखे पडसे आवेली, छूटी रहेली अने हाथना तकियामा फरती आंगळी ओने--ए जातना हस्ताकारनु नाम पद्माभिनय छे.' ८७-(भना०अ०९) ३. ईहामृग, ऋषभ, तुरग, नर, मकर, विहग,व्याल, किन्नर, रुरु, शरभ, नाव्यशास्त्रमा गजदत नामक कराभिनयनो उल्लेख छे, कदाच ए सामेना चमर, कुंजर, वनलता अने पद्मलताना चित्रनो अभिनय. 'कुंजर' मा अभिनय साथे मळतो होय. एनुं स्वरूप आ प्रमाणे छे:"सर्पना माथा जेबा एटले फेणना घाटना? अने कोणी सुधी संचित थएला बन्ने हाथने-ए जातना कराभिनयने 'गजदंत' कहेवामां आवे छे." १३८ (भ० ना० अ० ९) ४. एकतश्चक्र, द्विधा चक्र, एकतश्चक्रवाल, द्विधा चक्रवाल, चक्रार्थ अने चक्रवालनो अभिनय. ५. चंद्रावलिप्रविभाग, सूर्यावलिप्रविभाग, वलयावलिप्रविभाग, हंसावलि- एक हंसवक्त्र अने वीजो हंसपक्ष-ए बने कराभिनय छे. सामे आपेला प्रविभाग, तारावलिप्रविभाग, मुक्तावलिप्रविभाग, रत्नावलिप्रविभाग अने “हंसावलि' साथे कदाच ते मळता होय. तेनुं स्वरूप आ प्रमाणे छ:पुष्पावलिप्रविभागनो अभिनय. " तर्जनी अने वचली आंगळी तथा अंगुठो निरंतर अग्निस्थित होय अने Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004641
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBechardas Doshi
PublisherJinagama Prakashan Sabha
Publication Year
Total Pages358
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size15 MB
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