SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 317
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ शतक ६.-उद्देशक ५. भगवत्सुधमेस्वामिप्रणीत भगवतीसूत्र, अने बादर अग्निनी हयाती नथी होती. पण जे बादर, पृथिवी अने बादर अग्नि विग्रहगतिमां वर्तता होय छे तेओ ज त्यां-तमस्कायवाळा प्रदेशमा पण होइ शके छ माटे ज अहीं । विग्रहगतिने प्राप्त सिव यना' अर्थात् — विग्रह गतिने अप्राप्त ' एवा बादर पृथिवी अने बादर तेजनी हयातीने निषेधेली छे. [ " पलियरस ओ पुण अस्थि ' ति ] वळी, तमस्कायनी पडखे तो चंद्र वगेरे छे. [ ' कसिणि पुण सा' इति | ते तमस्कायनी क दूषणिका. पडखे चंद्र वगेरेनो सद्भाव होवाथी तेओनी प्रभा पण तेमां छे-ए सत्य छे, पण मात्र ते प्रभा तमस्कायना परिणामे परिणमवाथी पोताना के एंटले आत्माने दूषित करे छे, माटे ते प्रभा-छे पण नहि जेवी छे. [ • काले 'ति] काळो, [ 'कालोभासे' ति ] वोइ काळो पण पदार्थ कोई कारणथी काल. काळो अवभासे नहि माटे कहे छे के, ते तमस्काय काळो छे अने कालो अवभासे छ अथवा काळी क तिवाळो छ, [गंभीरलोमहरिसजणणे' ति] तथा गंभीर अने भयानक होवाथी ते तमस्काय, रोग हर्षनो जनक-रुंबाडाने उभा करनार-छे. हवे तमस्कायनी रोमहर्षजनकता अने भयानकताना कारणो कहे छः [ भीमे' त्ति ] ए तमस्काय भीष्म, [ ' उत्तासणए ' ति] अने उत्कंपनो हेतु छे. छेवट उपसंहार करता कहे थे के, भीम, 'परम' इत्यादि. ] तमस्कायर्नु स्वरूप पूर्वोक्त प्रमाणे छे, माटे ज बहे छे के, [ ' देवे विणं' इत्यादि.] [ 'तप्पढमयाए ' ति ] देव पण ए देव पण क्षोभ पामे. तमस्कायने जीतां वैत-जीतांवार-ज [सुभाएज' ति] क्षोभ पामे-[ 'अहे ' इत्यादि.] हवे कदाच ते देव, तमस्कायमा प्रवेश को तो पण भयथी [' सीहं सीहं ' ति ] कायगतिना अतिगयी अने' [ ' तुरियं तुरियं ' ति ] मनोगतिना अतिवेगथी अर्थात् जलदीथी ज [' वीइबइज' ति ] तमस्कायने-व्यतिनजे-उल्लंघे-तमस्कायमाथी जलदी बहार नीकली जाय. [ 'म इति वा इत्यादि.] अंधकाररूप होवाची तम. तमस्कायर्नु ' तम' ए १ नाम छे, अंधकारना ढगलारूप होवादी ' तमस्कार ' ए बीजु नाम छे, तमोरूप होवाथी · अंधकार ' ए बीजु नाम छ, तमस्काय-अंधक र. महातमोरूप होवाथी ' महांधकार ' ए चोथु नाम छे, लोफमा तथाप्रकारनो बीजो अंधकार न होबाथी ' लोकांधकर ' ए पांचमु नाम छे, ए प्रमाणे महांधकार-लोकांधक र. 'लोकतमिस्र 'ए छटुं नाम छे, त्यां उद्योत न होवाथी देवोने पण ए अंधकाररूप होबाने लीधे 'देवांधकार ' ए सातमुं नाम छे, ए प्रमाणे लोकत मेस्र-देवांधव र. 'देवतमिस्र ' ए आठमुं नाम छे, बलवान् देवना भयथी भागता देवोने तथाविध जंगल जैवं होबाने लीधे शरणभूत होवाथी ए तमस्कायर्नु दे तमिस्र. 'देवारण्य ' ए नवमुं नाम छे, व्यूह एटले चक्रादिव्यूहनी पेठे देवोने दुर्भेद होवाथी · देवव्यूह ' ए एन दशमुं नाम छे, देवोने भयर्नु उत्पादक देवारण्य-देव यूड, होइ तेओना गमनमा विघातनुं कारण होवाथी. ' देवपरिघ ' ए अग्यारमुं नाम छे, देवोने क्षोभर्ने कारण होवाथी "देवप्रतिक्षोभ ए बार, नाम छे देवपरिष-देवप्रतिक्षोभ, अने ए तमस्काय, अरुणोदक समुद्रना पाणिनो विकार होवाथी एजें 'अरुणोदक समुद्र ' ए तेर मुं नाम छे. पूर्वे पृथिव्यादि संबंधे तमस्काय शब्दन अरुणोदक वांच्या पल्यं अर्थात प्रथिवी ए तमस्काय कहेवाय' इत्यादि पूछ्यु, हवे ते तमस्काय, क्या पदार्थनो परिणाम छे--शुं पृथिवीकाय-पृथिवी-नो तमस्काय कोनो परिणाम के के अकाय-पाणी-नो परिणाम छ वा पृथिवी अने पाणी-ए बन्ने जीव अने पुद्गल.ना परिणामरूप होवाथी ए. तम काय, जीव अने परिणाम ? पुगलनो परिणाम छे-ए विषे पूडतां-[' तमुक्काए णं' इत्यादि ] सूत्र कहे छे. तें तमस्कायमा बादरवायु, बादर वनसति अने सो उत्पन्न थाय .. छे, कारण के, वायुनी अने वनस्पतिनी उत्पत्ति अकायमा संभवे छे पण त्यां एटले तमस्कायमां बीजा जीवोनी उत्पत्ति संभवती नथी. कारण के, बीजाओगें ते स्वस्थान नथी. मांटे ज क्रमु छे के, [ 'नो चेवण इत्यादि.] कृष्णसजिओ. २०.५०-कई णं भंते ! कण्हराईओ पनत्ता? २०. प्र०-हे भगवन् । कृष्णराजिओ केटली कही छे ? २०. उ०-गोयमा ! अट्ट कण्हराईओ पनचाओ.. २०. उ०-हे गौतम ! आठ कृष्णराजिओ कहेली . २१. प्र०-कहि णं भंते ! एयाओ अट्ठ कण्हराईओ २१. प्र०—हे भगवन् ! ए आठ कृष्णराजिओ क्या आवेली पनत्ताओ? कही छे ? २१.३०-गोयमा.! उाप्पिं सणंकुमार-माहिंदाणं कप्पाणं, २१. उ०--हे गौतम ! उपर सनत्कुमार-माहेन्द्रकल्पमा अने. हिटिं बंभलोए कप्पे (ओरिद्वे विमाणपत्थडे-एत्थ णं अक्खाडगसम- नीचे ब्रह्मलोक कल्पमा (अ)रिष्ट विमानना पाथडामा छ अर्थात् ए चउरससंठाणसंठियाओ अट्ट कण्हराईओ पन्नत्ताओ, तं जहा:- ठेकाणे अख डानी पेठे समचतुरस्र-चोखंडे-संस्थाने संस्थित एवी पुरस्थिमेणं दो, पञ्चस्थिमेणं दो, दाहिणेणं दो, उत्तरेणं दो; आठ कृष्णराजिओ कहेली छे, ते जेमके; बे कृष्णराजि पूर्वमां, परस्थिमऽभतरा कण्हरीई दाहिण-बाहिरं कण्हराई पुट्ठा, दाहिण- बे कृष्णराजि पश्रिममां, बे कृष्णराजि दक्षिणमां अने बे कृष्णराजि ऽन्भतरा कण्हराई पचाथिम बाहिरं कण्हराई पुट्ठा, पञ्चात्थम- उत्तरमां, ए प्रमाणे आठ कृष्णराजिओ कही छे, पूतिर कृष्णऽभतरा कण्हराई उत्तरबाहिरं कण्हराई पुट्टा, उत्तरमऽभतरा गजि दक्षिणबाह्यं कृष्णराजिने स्पर्शेली छे, दक्षिणाभ्यंतर कृष्णकण्हर ती पुरस्थिमबाहिरं कण्हराई पुता; दो पुरस्थिम-पचत्थिमाओ राजि पश्चिमबाह्य कृष्णराजिने स्पर्शेली है, पश्चिमाभ्यंतर कृष्णराजि १. अहिं प्राकृत शैली थी दीर्घ थयो छे एटले 'क' ने बदले ' का 'थयो छे अने ' दूषणा' शब्दथी खार्थमा 'क' प्रत्यय आवाथी 'दूषणिका' शब्द बन्यो छे:-श्रीअभय २. ' इति ' एटले ए अने ' वा ' एटले विकल्प:-श्रीअभय. १. मूलच्छायाः कति भगवन् ! कृष्णराजयः प्रज्ञप्ता: ? गौतम ! अष्ट कृष्णराजयः प्रज्ञप्ताः. कुत्र भगवन् ! एता अष्ठ कृष्णराजयो प्रज्ञता! गौतम ! उपरि सनत्कुमार-माहेन्द्रयोः कल्पयोः, अधो ब्रह्मलोके कल्पे रिष्टे विमानप्रस्तटेऽत्राऽक्षपाटकसमचतुरस्त्रसंस्थानसंस्थिता अष्ट कृष्णराजयः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा:-पौरस्त्येन द्वे, पश्चिमेन द्वे, दक्षिणेन द्वे, उत्तरेण वे पौरस्त्याऽभ्यन्तरा कृष्णराजिः दक्षिणबस कृष्णराजि स्पृष्टा, दक्षिणाऽभ्यन्तरा कृष्णराजिः पश्चिमबाह्यां कृष्णराजि स्पृष्टा, पश्चिमाऽभ्यन्तरा कृष्णराजिः उत्तरबाझा कृष्णराजि स्पृष्टा, उत्तराऽभ्यन्तरा कृष्णराजिः पौरस्त्यवाह्यां कृष्णराजि' ला; हे पौरस्स्य-पश्चिमे:-अनु. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004641
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBechardas Doshi
PublisherJinagama Prakashan Sabha
Publication Year
Total Pages358
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy