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________________ १४२ श्रीरायचन्द्र-जिनागमसंग्रहे शतक ४ उदेशक १०. कापोती लेश्या उपाय रसकाळी छे, पाफी करायली अने मधुर के अने गोळ विगेरेनी , 6 पेठे कृष्णलेश्या तिक्त (कडनी) छे, सुंठनी पेठे नीललेवया कडु ( तिखी) छे, काचा बोरनी पेठे फेरी विगेरेनी पेठे तेजोलेश्या खाटी अने गळी छे, चंद्रप्रभा वगेरे मधनी पेठे पचलेल्या तिसी, गंध. पेठे शुक्ललेश्या मधुर-गळी छे. [ 'गंध' त्ति ] लेश्याओनो गंध कहवोः आदिनी त्रण लेश्याओं दुर्गंधी छे अने छेली त्रण लेश्याओ सुगंधी शुद्ध छे [ 'सुद्ध' त्ति ] छेल्ली त्रण लेश्याओ शुद्ध छे अने पेली त्रण लेश्याओ अशुद्ध छे. [' अपसत्थ त्ति ] पेली ऋण लेग्याओ नठारी छे अने संगिट, छेली पण लेश्याओ सारी छे. [ 'किलिङ' त्ति ] पेली ऋण लेखाओ सेक्डि छे अने छेली पण लेश्याओ असंक्रिष्ट छे [ उण्ह चि ) केही त्रण लेश्याओ स्निग्ध अने उष्ण छे अने पेली ऋण लेश्याओ शीत अने रूक्ष छे. [ ' गति ' त्ति ] पेली त्रण लेश्याओ दुर्गतिनुं कारण छे अने ठेली पण याओ सुगति कारण . [ परिणाम ति] ठेश्याजोनो परिणाम केटला प्रकारनो होय एकदेवं ते आ रीतेः लेश्यानो परिणाम त्रण प्रकारनो छे: - जघन्य, उत्कृष्ट अने मध्यम अथवा उत्पात वगेरे. [' पएस ' त्ति ] लेश्याओना प्रदेशो कहेवा : ते लेश्याओमांनी एक प्रदेश- अवगाह. एक लेश्या अनंत प्रदेशवाळी छे. [ 'ओगाहे ' त्ति ] एओनी अवगाहना कहेवीः ए लेश्याओनी, असंख्य (क्षेत्र) प्रदेशमां अवगाहना छे-ए वर्गणा. लेश्याओने समाई रहेवा माटे क्षेत्रना असंख्य प्रदेशोनी जरूर पडे छे. [ ' वग्गण ' त्ति ] ए लेश्याओनी वर्गणा कहेवीः कृष्णलेश्यादिक लेश्याने योग्य " " " ( स्थान. व्यवर्गणा ओदारिकादि वर्गणानी पेठे अनंत छे. [ ठाण' ति ] तरतमपणाने लीचे विचित्र अध्यवसायनां कारणरूप कृष्ण विगेरे द्रव्यनामू असंख्य छे, कारण के अध्यवसायनां स्थानो पण असंख्य छे. [ 'अप्पबहुं ' ति ] लेश्यानां स्थानोनुं ओछावघतापणुं जणाववुं, ते आ रीतेः“ हे भगवन् ! ए कृष्णलेश्यानां जघन्य स्थानोमां अने यावत्-शुक्ललेश्यानां जघन्य स्थानोमां द्रव्यार्थपणे कयां कोनाथी ओछां छे, वधारे छो सरखां के विशेषाधिक हे गौतम! द्रव्यार्थपने कापोतलेश्यानां जयम्य स्थानो साथी थोडां छे, द्रव्यार्थपणे नीललेश्यानां जघन्य स्थानो असंख्यगणां छे, द्रव्यार्थपणे कृष्णलेश्यानां जघन्य स्थानो असंख्यगणां छे, द्रव्यार्थपणे तेजोलेश्यानां जघन्य खानो असंख्यगणां के, द्रव्यार्थपणे पद्मलेश्यानां जघन्य स्थानो असंख्यगणां हे अने हस्यार्थपणे शुक्रलेश्यानां जयम्य खानो पण असंख्यगणां हे " इत्यादि. गति - परिणाम. अल्प- बहुत्व. જોયું ત Jain Education International चोथे शते सर्व रीते सुबोधे सेजे हमेशा रसयुक्त दूधे व्याख्या करी में कंद आ रचेली, भेळ्युं गळ्युं शुं नथी छाजतुं ते ? चतुर्थ शतक समाप्त. बेडारूपः समुद्रेऽखिलचरिते क्षारभारे भवेऽस्मिन् दायी यः सगुणानां परकृतिकरणाद्वैतजीवी तपस्वी । अस्माकं वीरवीरोऽनुगतनरवरो वाहको दान्ति- शान्त्योः - दद्यात् श्रीवीरदेवः सकलशिवसुखं मारहा चामुख्यः ॥ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org/
SR No.004641
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBechardas Doshi
PublisherJinagama Prakashan Sabha
Publication Year
Total Pages358
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size15 MB
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