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________________ श्याम सप्तमी दशा - हिन्दीभाषाटीकासहितम् / हो जाय तो वह भिक्षु सारी रात्रि जल में कैसे व्यतीत कर सकता है ? समाधान में कहा जाता है कि यहां 'जल' शब्द का अर्थ शुष्क जलाशय करना चाहिए / वह वृक्ष की छाया में बना हुआ हो या जल में ही कोई शुष्क स्थान हो तो प्रतिमा प्रतिपन्न भिक्षु को वहीं पर रात्रि व्यतीत कर लेनी चाहिए / ऐसे स्थान पर वह व्यतीत कर भी सकता है / किन्तु यहां 'जल' शब्द का अर्थ वृत्तिकार ने 'दिन का चतुर्थ प्रहर' किया है, क्योंकि उस समय से ओस पड़नी प्रारम्भ हो जाती है; अतः भिक्षु को जहां दिन का चतुर्थ प्रहर लगे वहीं ठहर जाना चाहिए / वृत्तिकार ने वृत्ति में इस प्रकार लिखा है : "चतुर्थी पौरुषी प्रारम्भे हि तेषां रविरस्तमितो, व्यवहियते तेन तृतीय-प्रहरावसान एतेषां सूर्यास्तमिति मतिर्भवति इति भावः / तथा जले जलविषये न तु जल एव / कथं तेऽस्तसमये यान्ति ? सोपयोगवत्त्वात्-तेषामुच्यते / अत्र तु जलशब्देन नद्यादिजलं (जलाशय) गृह्यते किन्तु दिवसस्य तृतीय-यामावसान एवात्र जल-शब्दवाच्यो भवतीति समये रीतिः / इस वृत्ति का अर्थ ऊपर स्पष्ट किया जा चुका है / किन्तु यह अर्थ उचित नहीं मालूम पड़ता / क्योंकि सूत्र में 'जलंसि' सातवीं विभक्ति है / अतः इसका अर्थ 'जल में', 'जल पर' अथवा 'जल विषय' यही हो सकते हैं / दूसरे में 'चतुत्थीए पोरुसीए पडिमा-पडिवन्नं विहारं णो करेज्जा' ऐसा पाठ भी कहीं नहीं मिलता है / अतः जहां शुष्क जलाशयादि वृक्ष की छाया में हो वहां ठहरना सर्वथा युक्ति संगत मालूम पड़ता है | क्योंकि प्रतिमा-प्रतिपन्न को परिषहों के सहन करने का ही विशेष विधान किया गया है / हाँ, यदि भिक्षु का अभिग्रह (प्रतिज्ञा) तीन ही प्रहर विहार करने का हो तो वृत्तिकार का अर्थ भी युक्ति-युक्त हो सकता है / अन्यथा यह शङ्का स्वभावतः उत्पन्न हो जाती है कि यदि अवश्याय (ओस) के कारण दिन के चौथे प्रहर को 'जल' माना जाय तो दिन के पहले प्रहर को क्यों नहीं माना गया; उसमें भी तो ओस विशेष रूप से पड़ती ही है / इस प्रकार दिन के पहले प्रहर में भी विहार का निषेध होना चाहिए, किन्तु यह नहीं हो सकता, क्योंकि इसी सूत्र में स्पष्ट कह दिया है कि सूर्य के उदय होते ही विहार कर दे / / यहां 'जल' शब्द का अर्थ शुष्क जलाशय 'नैगम' नय के अनुसार किया गया है और जलाशयों के समीप प्रायः वृक्षादि होते ही हैं / अतः उपर्युक्त अर्थ सर्वथा युक्ति-संगत सिद्ध होता है / यदि इस सूत्र का कथन 'नैगम' नय के अनुसार ही माना जाय तो कोई - ao
SR No.004500
Book TitleDasha Shrutskandh Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAatmaram Jain Dharmarth Samiti
Publication Year2001
Total Pages576
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_dashashrutaskandh
File Size11 MB
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