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________________ - - श 182 दशाश्रुतस्कन्धसूत्रम् षष्ठी दशा पदार्थान्वयः-य-और जावि-जो से-उसकी बाहिरिया–बाहिर की परिसा-परिषद् भवति होती है तं जहा-जैसे दासेति वा-दासी-पुत्र अथवा पेसेति-प्रेष्य वा-अथवा भितएति-वैतनिक पुरुष वा अथवा भाइल्लेति-व्यापार आदि में समान भाग वाला (हिस्सेदार) कम्मकरेति वा-अथवा काम करने वाला वा-अथवा भोगपुरिसेति-भोग-पुरुष तेसिंपि-उनके अण्णयरगंसि-किसी अहा-लहु-यंसि-छोटे से अवराहसि-अपराध होने पर सयमेव-अपने आप ही गुरुयं दंड-भारी दण्ड वत्तेति-देता है तं जहा-जैसेः मूलार्थ-जो उसकी बाहिर की परिषद् होती है, जैसे-दास, प्रेष्य, भृतक, भागिक, कर्मकर और भोग-पुरुष आदि, उनके किसी छोटे से अपराध हो जाने पर अपने आप ही उनको भारी दण्ड देता है | जैसे: टीका-इस सूत्र में वर्णन किया गया है कि नास्तिक का अपनी बाहिरी परिषद (परिजन) के साथ कैसा न्याय-हीन व्यवहार होता है / बाह्या परिषद्-दासी-पुत्र, प्रेष्य (जो इधर उधर कार्य के लिए भेजा जाता है), वैतनिक भृत्य, समानांश-भागी (हिस्सेदार), कर्म-कर और भोग-पुरुष आदि (उससे सम्बन्ध रखने वाले व्यक्तियों की संज्ञा है) के छोटे से अपराध पर अपने आप गरुतर दण्ड देता है, यह उसका सर्वथा अन्याय है। न्याय तो वास्तव में वही होता है जिससे अपराध के अनुसार दण्ड विधान किया जाय अर्थात् छोटे अपराध पर = बड़े दण्ड की आज्ञा दी जाए तो वह सर्वथा अन्याय है और न्याय का गला घोटना है | किन्तु नास्तिक न्याय और अन्याय का विचार तो करता ही नहीं, जिसको चाहता है भारी दण्ड दे बैठता है। उस गुरु-दण्ड का स्वरूप सूत्रकार वक्ष्यमाण सूत्र में वर्णन करते हैं: इमं दंडेह, इमं मुंडेह, इमं तज्जेह, इमं तालेह, इमं अंदुय-बंधणं करेह, इमं नियल-बंधणं करेह, इमं हडि-बंधणं करेह, इमं चारग-बंधणं करेह, इमं नियल-जुयल-संकोडिय-मोडियं करेह, इमं हत्थ-छिन्नयं करेह, इमं पाय-छिन्नयं करेह, इमं उट्ठ-छिन्नयं करेह, इमं सीस-छिन्नयं करेह, इमं मुख-छिन्नयं
SR No.004500
Book TitleDasha Shrutskandh Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAatmaram Jain Dharmarth Samiti
Publication Year2001
Total Pages576
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_dashashrutaskandh
File Size11 MB
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