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________________ 256 श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासनम् कित इति किम् ? वरिता // 57 // उवर्णात् / 4 / 4 / 58 // उवर्णान्तादेकस्वराद् विहितस्य 'कित आदिरिट् न' स्यात् / युतः, लूनः / कित इत्येव- यविता, लविता // 5 // ग्रह-गुहश्च सनः / 4 / 4 / 59 // आभ्यामुवर्णान्ताच्च विहितस्य ‘सन आदिरिट् न' स्यात् / जिघृक्षति, जुघुक्षति, रुरूषति // 59 // स्वार्थे / 4 / 460 // 'स्वार्थार्थस्य सन आदिरिट् न' स्यात् / जुगुप्सते // 60 // . डीय-श्व्यैदितः क्तयोः / 4 / 461 // डीयतेः श्वेरैदिभ्यश्च धातुभ्यः 'परयोः क्त-क्तवत्वोरादिरिट् न' स्यात् / डीनः, डीनवान्; शूनः, शूनवान्; त्रस्तः, त्रस्तवान् // 61 // . वेटोऽपतः / 4 / 4 / 62 // अपतो विकल्पितेटो धातोरेकस्वरात् ‘परयोः क्तयोरादिरिट् न' स्यात् / रद्धः, / रद्धवान् / अपत इति किम् ? पतितः // 62 // सं-नि-वेरर्दः / 4 / 4 / 63 // एभ्यः पराद् अर्देः 'परयोः क्तयोरादिरिट् न' स्यात् / समर्णः, समर्णवान्; न्यणः, न्यर्णवान्; व्यर्णः, व्यर्णवान् / संनिवेरिति किम् ? अर्दितः // 63 // अविरेऽभः // 4 // 6 // अमेः पराद् अर्देः 'परयोः क्तयोरविदूरेऽर्थे आदिरिट् न' स्यात् / अभ्यणः, अभ्यर्णवान् / अविदूर इति किम् ? अभ्यर्दितो दीनः शीतेन // 64 //
SR No.004492
Book TitleSiddhhemchandra Shabdanushasanam Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraguptasuri
PublisherMokshaiklakshi Prakashan
Publication Year1995
Total Pages250
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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