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________________ ऽङ्कः] अभिनवराजलक्ष्मी-भाषाटीका-विराजितम् 411 राजा-शचीतीर्थ सलिलं वन्दमानायास्ते सख्या हस्ताद्गङ्गास्रोतसि परिभ्रष्टम् / विदूषक-जुजदि / [ युज्यते ] / सानुमती-अदो वस्तु तवस्सिणीए सउन्तलाए अधर्मभीरुणो एदस्स राएसिणो परिणए सन्देहो जादो। अधवा ण ईदिसो अणुराओ अहिण्णाणं अवेक्खदि / ता कधं विअ एवं?। [अतः खलु तपस्विन्याः शकुन्तलाया अधर्मभीरोरेतस्य राजर्षे: परिणये सन्देहो जातः। अथवा नेदृशोऽनुशगोऽभिज्ञानमपेक्षते / तत्कथमिवैतत् ? ] / राजा-उपालप्स्ये तावदिदमङ्गुलीयकम् / गङ्गास्रोतसि = गङ्गाप्रवाहे / तपस्विन्याः = दीनायाः / परिणये = विवाहे / अधर्मभीरोः = पापाशविनः / ईदृशः= प्ररूढः। एवंदशां गतः। अनुरागः = स्नेहः / अभिज्ञानं = चिह्नादिदर्शनम् / एतत् = अभिज्ञानापेक्षित्वम् / उपालप्स्ये = राजा-शचीतीर्थ में तीर्थ के जल को प्रणाम करते समय तुम्हारी सखी (तुमारे मित्र की = मेरी-पत्नी शकुन्तला ) के हाथ से गङ्गाजी के जल में यह गिर गई थी। [शचीतीर्थ-गङ्गा के तटपर सूकर ताल (शक्रावतार) तीर्थसोरों ( एटा के पास ) / या हापुड़ के पास हो कोई तीर्थस्थल विशेष होना . चाहिए] विदूषक-ठीक है, यह बात ठीक जचती है / सानुमती-इसीलिए ( अंगठा के गिर जाने से ही) पाप से डरने वाले इस राजा को, बेचारी दुःखिया शकुन्तला के साथ गुप्तरूप से किए हुए अपने विवाह में सन्देह हो गया। परन्तु ऐसा बढ़ा हुआ अनुराग भी क्या अभिज्ञान (परिचय, अंगठी के द्वारा परिचय ) की अपेक्षा करता है ? / अर्थात्-जब राजा का उसमें इतना प्रेम था, तो फिर ऐसे बढ़े हुए प्रेम में भी अभिज्ञान की क्या आवश्यकता थी ? / यह बात समझ में नहीं आती है। राजा-हे मित्र ! मैं तो इस अंर ठी को अब उलहना दूंगा। 1 'तीर्थसलिलं' पा० //
SR No.004487
Book TitleAbhigyan Shakuntalam Nam Natakam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahakavi Kalidas, Guruprasad Shastri
PublisherBhargav Pustakalay
Publication Year
Total Pages640
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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