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________________ लोकाशाहचरिते इत्थं मुनीनां च मुखारविन्दाच्छ्योऽरविन्देन वृषोपदेशम् / विनिःसृतं मंगलमेव मत्वा जनाः स्वकण्ठे दधते निपीय // 40 // अर्थ-इस प्रकार के वह मुनिराज के मुखारविन्द से इस निर्गत हुए उपदेश को कर्णारविन्दों द्वारा सुनकर वहां के मनुष्य उसे मंगल रूप मानकर अपने कण्ठ में धारण करते हैं // 40 // આ પ્રકારના મુનિરાજના મુખારવિંદથી નીકળેલ ઉપદેશને સાંભળીને મનુષ્ય તેને મંગળરૂપ માનીને તેને પોતાના કંઠમાં ધારણ કરે છે. 40 श्रुतोपदेशप्रभवप्रभावाज्जना भवतापशरीरभोगात् / केचिद्विरक्ता मुनयो भवन्ति केचिच्च गृहस्थप्रतिमां वहन्ति // 41 // ____ अर्थ-सुने गये उपदेश के प्रभाव से वहां पर कितनेक मनुष्य तो संसारजन्य ताप से, शरीर और भोगों से विरक्त होकर मुनि हो जाते हैं और कितनेक गृहस्थ का श्रावकवत को वहन कर लेते हैं // 41 // સાંભળવામાં આવેલા ઉપદેશના પ્રભાવથી ત્યાંના કેટલાક મનુષ્ય તે સાંસારિક તાપથી શરીર અને ભેગથી વિરક્ત બનીને મુનિ થઈ જાય છે, અને કેટલાક ગૃહસ્થ અવસ્થામાં रहीन श्राप प्रतने पाए रे छ. // 41 // अनेक योनौ बहुशो भ्रमित्वा जीवेन पिण्डत्वमिवामतेन। पुण्येन लब्धव्यमिदं नरत्वं लब्धं प्रमादः स्वहिते न कार्यः // 42 // अर्थ-अनेक योनियों में-८४ लख जीवयोनियों में-बहुशः अनेक बार भ्रमण करके-जन्म मरण करके-बडे भारी पुण्य के ढेर प्राप्त होने योग्य इस मनुष्य जन्म को जीवने प्राप्त किया है अतः हे जीव तुझे अपना हित करने में प्रमाद नहीं करना चाहिये // 42 // અનેક યોનિમાં અર્થાતુ 84 ચોર્યાસી લાખ યોનિમાં અનેકવાર ભ્રમણ કરીને અર્થાત જન્મ મરણ ધારણ કરીને ઘણા જ અધિક પુણ્યના પ્રભાવથી આ મનુષ્યભવને જીવે પ્રાપ્ત કરેલ છે, તેથી હે જીવ! તારે પિતાનું હિત કરવામાં પ્રમાદ સેવો ન જોઈએ જરા अस्मिन् सुराज्ये न समस्ति कोऽपि समन्तभद्रोऽपि शुद्धस्वरूपम् / अहीन संसर्गयुतोऽपि नास्ति अहीन संसर्गयुतश्च कोऽपि // 43 // . _____ अर्थ-इस सुराज्य में समन्तभद्राचार्यने धर्म के शुद्ध स्वरूप का उपदेश किया था, उनके तुल्य कोई उपदेशक नहीं था। यहां पर सज्जनों के संगवर्जित कोई भी नहीं थी, एवं हीन पुरुषों का कोई संसर्ग रखते नहीं थे // 43 //
SR No.004486
Book TitleLonkashah Charitam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilalji Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti
Publication Year1983
Total Pages466
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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