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________________ ( 24 ) दुर्शन केवल सकर्मक जीवको ही कर्ता मानता है वैसाही नहीं है, परन्तु हर कोई कार्य करनेमें पुरुषार्थ, कर्म काल नियति, स्वभाव यह पांच कारणों की भी जरूरत मानता है यदि इस पांच कारणों में से एक भी न हों तो पुरुष अपनी अङ्गुली तक को भी हिला नहीं सकता. इसलिये स्वभाववादमें इन पांचो कारणोंसे सृष्टि प्रवाह होना असंभवित नहीं है, परन्तु यह पांच कारणभी विना जीव, कुछ नहि करसकते इसलिये जैनदर्शन में जीवको ही कर्ता, भोक्ता मानते हैं. बस, इससे पाठक गणको जरूर विदित हुआ होगा कि मी-गंगाधरजीका सृष्टिकर्ताके विषयमें जो जो कुच्छ वक्तव्य था वह सब कैसा नियुक्तिक और तुच्छ था. अभी तो इस विषयको में यहां ही खतम करता हुआ आगे मी-गंगाधरजी की खबर लेता हु // से और भी वे साहब अपनी महामहोपाध्यायता प्रकट करते हुए आत्म व्यापकत्वमें पूर्वपक्ष दिखलाते हैं-- . (पूर्वपक्ष) देहाद् बहिनहि सुखादि कदापि दृष्टं ...तेनाऽस्तु देहपरिमाणक एव जीवः। बन्धोऽस्य सम्भवति देहमितत्व एव .. .मोक्षोऽपि वा स्वतनुयोगवियोगभेदात् // 31 // वस्मिन् विभौ तु सतताऽखिलकाययोगा. दापचते सततबन्धनदुष्पसङ्गः। ..
SR No.004479
Book TitleMahamhopadhyay Shree Gangadharji ke Jain Darshan ke Vishay me Asatya Aakshepoke Uttar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSacchidanand Bhikshu
PublisherShah Harakhchand Bhurabhai
Publication Year1913
Total Pages50
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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