________________ // 24 // - // 25 // // 26 // // 27 // // 28 // - // 29 // चरमे पुद्गलावर्ते तथाभव्यत्वपाकतः / . संशुद्धमेतन्नियमानान्यदापीति तद्विदः उपादेयधियाऽत्यन्तं संज्ञाविष्कम्भणान्वितम्। फलाभिसन्धिरहितं संशुद्धं ह्येतदीदृशम् आचार्यादिष्वपि ह्येतद्विशुद्धं भावयोगिषु / वैयावृत्त्यं च विधिवच्छृद्धाशयविशेषतः भवोद्वेगश्च सहजो द्रव्याभिग्रहपालनम् / तथा सिद्धान्तमाश्रित्य विधिना लेखमादि च लेखना पूजना दानं श्रवणं वाचनोद्ग्रहः / प्रकाशनाथ स्वाध्यायश्चिन्तना भावनेति च बीजश्रुतौ च संवेगात्प्रतिपत्तिः स्थिराशया। तदुपादेयभावश्च परिशुद्धो महोदयः' एतद्भावमले क्षीणे प्रभूते जायते नृणाम् / करोत्यव्यक्तचैतन्यो महत्कार्यं न यक्वचित् चरमे पुद्गलावर्ते क्षयश्चास्योपपद्यते। . . जीवानां लक्षणं तत्र यत एतदुदाहृतम् दुःखितेषु दयात्यन्तमद्वेषो गुणवत्सु च / औचित्यात्सेवनं चैव सर्वत्रैवाविशेषतः एवंविधस्य जीवस्य भद्रमूर्तेर्महात्मनः / शुभो निमित्तसंयोगो जायतेऽवञ्चकोदयात् योगक्रियाफलाख्यं यच् छूयतेऽवञ्चकत्रयम् / साधूनाश्रित्य परममिषुलक्ष्यक्रियोपमम् एतच्च सत्प्रणामादिनिमित्तं समये स्थितम् / अस्य हेतुश्च परमस्तथाभावमलाल्पता // 30 // // 31 // // 32 // // 33 // // 34 // // 35 // ૧લક