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________________ 380 2-1-6-2-2 (488) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन लेकर हि जावे... इत्यादि शेष सूत्र के पद सुगम है... यावत् साधु का साधुपना जैसे हो वैसा हि मुनि आचरण करे... सूत्रसार: प्रस्तुत सूत्र में बताया गया है कि- गृहस्थ के घर में पानी के लिए गए हुए साधुसाध्वी को कोई गृहस्थ सचित्त पानी देने का प्रयत्न करे तो वह उसे स्वीकार न करे। और यदि कभी असावधानी से ग्रहण कर लिया हो तो उसे अपने उपयोग में न ले किंतु वह उसे उसी समय वापिस कर दे, यदि गृहस्थ वापिस लेना स्वीकार न करे तो एकान्त स्थान में स्निग्ध भूमि पर परठ दे और उस पात्र को तब तक न पोंछे एवं न धूप में सुखाए जब तक उसमें पानी की बुन्दें टपकती हों या वह गीला हो। सचित्त पानी देने के सम्बन्ध में वृत्तिकार ने चार कारण बताए हैं- 1. गृहस्थ की अनभिज्ञता-वह यह न जानता हो कि साधु सचित्त पानी लेते हैं या नहीं, 2. शत्रुता- साधु को बदनाम करके उसे लोगों के सामने सदोष पानी ग्रहण करने वाला बताने की दृष्टि से, 3. अनुकम्पा- साधु को प्यास से व्याकुल देखकर दया भाव से और 4. विमर्षता- किसी अन्य जटिल विचार के कारण उसे ऐसा करने को विवश होना पड़ा हो। अतः यहां यह स्पष्ट है कि गृहस्थ चाहे जिस परिस्थिति एवं भावनावश सचित्त जल दे, परन्तु साधु को किसी भी परिस्थिति में सचित्त जल का उपयोग नहीं करना चाहिए। सचित्त जल को परठने के सम्बन्ध में वृत्तिकार का कहना है कि- यदि गृहस्थ उस सचित्त जल को वापिस लेना स्वीकार न करे तो साधु को उसे कूप आदि में समान जातीय जल में परठ देना चाहिए। यदि साधु के पास दूसरा पात्र हो तो उसे उस सचित्त जल युक्त पात्र को एकान्त में परठ (छोड़) देना चाहिए अथवा छाया युक्त स्निग्ध स्थान में विवेक पूर्वक परठ दे... वस्त्र आदि की तरह पात्र के सम्बन्ध में भी यह बताया गया है कि साधु जब भी आहार-पानी के लिए गृहस्थ के घर में जाए या शौच के लिए बाहर जाए या स्वाध्याय भूमि में जाए तो अपने पात्र को साथ लेकर जाए। इससे स्पष्ट होता है कि साधु को बिना पात्र के कहीं नहीं जाना चाहिए। इसका कारण यह है कि पात्र किसी भी समय काम में आ सकता है। अतः उपाश्रय से बाहर जाते समय पात्र को साथ रखना उपयुक्त प्रतीत होता है। / / प्रथमचूलिकायां षष्ठ-पात्रैषणाध्ययने द्वितीय: उद्देशकः समाप्तः //
SR No.004438
Book TitleAcharang Sutram Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
PublisherRajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
Publication Year
Total Pages608
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size14 MB
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