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________________ 272 2-1-3-2-1 (454) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन आचाराङ्गसूत्रे श्रुतस्कन्ध-२ चूलिका - 1 अध्ययन - 3 उद्देशक - 2 म ईर्या // पहला उद्देशक कहा, अब दुसरा उद्देशक कहतें हैं... इसका यहां इस प्रकार अभिसंबंध है... पहले उद्देशक में नौका में बैठे हुए साधु को क्या करना चाहिये वह विधि कही है, और यहां दुसरे उद्देशक में भी वह हि विधि कहना है... अतः इस संबंध से आये हुए इस दुसरे उद्देशक का यह प्रथम सूत्र है... I सूत्र // 1 // // 454 // से णं परो नावा० आउसंतो ! समणा ! एयं ता तुम, छत्तगं वा जाव चम्मछेयणगं वा गिण्हाहि, एयाणि तुमं विरूवरूवाणि सत्थजायाणि धारेहि, एयं ता तुमं दारगं वा पज्जेहि, नो से तं० // 454 / / II संस्कृत-छाया : तस्य पर: नौगत:० हे आयुष्मन् ! श्रमण ! एतत् तावत् त्वं छत्रकं वा यावत् चर्मच्छेदनकं वा गृहाण, एतानि त्वं विरूपरूपाणि शस्त्रजातानि धारय, एतं तावत् त्वं दारकं वा पायय, न सः तां परिज्ञांo || 454 // III सूत्रार्थ : यदि नाविक नाव पर सवार मुनि को यह कहे कि हे आयुष्मन् श्रमण ! पहले तू मेरा छत्र यावत् चर्मछेदन करने के शस्त्र को ग्रहण कर। इन विविध शस्त्रों को धारण कर और इस बालक को दुध पिला दे। वह साधु उसके उक्त वचन को स्वीकार न करे, किन्तु मौन धारण करके बैठा रहे। IV टीका-अनुवाद : नौका में बैठे हुए वे गृहस्थादि वहां बैठे हुए साधु को कहे कि- हे आयुष्मान् श्रमण ! यह मेरे छत्र आदि को जरा (क्षण भरके लिये) पकडीयेगा... तथा यह हमारे शस्त्र-आयुध आदि को पकड कर बैठो... तथा इस हमारे बच्चे को दुध पीलाओ... इत्यादि प्रार्थनाएं न सुनीयेगा... यदि दुसरे के वैसे वैसे कार्य न करने पर यदि वे गुस्से में आकर द्वेष धारण करे
SR No.004438
Book TitleAcharang Sutram Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
PublisherRajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
Publication Year
Total Pages608
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size14 MB
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