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________________ 306 // 1-9-4-3 (3२०)卐 श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन III सूत्रार्थ : शरीर को अशुचिमय जानने वाले भगवान महावीर स्वामीजी शरीर के रोग की शान्ति के लिए एवं शरीर के संशोधन के लिये विरेचन लेना, वमन करना, शरीर पर तैलादि का मर्दन करना, स्नान करना, और दातुन आदि से दान्तों को साफ करना, इत्यादि कभी भी नहीं करते थे। IV टीका-अनुवाद : विरेचन (जुलाब) आदि से शरीर के मल का शोधन, एवं मदनफल आदि से वमन तथा सहस्रपाक तैल आदि से शरीर का अभ्यंगन एवं उद्वर्तनादि के द्वारा स्नान तथा हाथ और पैर से शरीर का संबाधन इत्यादि, परमात्मा कभी भी नहि चाहते थे... किंतु “यहं शरीर मल-मूत्रादि एवं लोही-मांसादि से युक्त होने से अशुचि स्वरूप है" इत्यादि सोचकर परमात्मा दंतकाष्ठादि (दातण) से दांतो की सफाइ स्वरूप दंतधावन भी नहि करतें थे... v सूत्रसार : भगवान महावीर का ध्यान आत्मा की ओर लगा था। शरीर पर उन्होंने कभी ध्यान नहीं दिया। वे जानते थे कि- यह शरीर नश्वर है। इसलिए वे किसी रोग के उत्पन्न होने पर उसे उपशान्त करने के लिए या भविष्य में रोग न हो इस भावना से कभी भी विरेचनजुलाब नहीं लेते थे और उन्होंने साधना काल में अपने शरीर को स्वस्थ रखने के लिए किसी भी तरह की चिकित्सा भी नहीं की। वे सदा अपनी आत्मा को हि देखते थे और आत्मा को विशुद्ध करने में ही प्रयत्नशील थे। परमात्मा के चिंतन संबंधित उल्लेख करते हुए सूत्रकार महर्षि आगे का सूत्र कहते हैं... I सूत्र // 3 // // 320 // 1-9-4-3 विरए गाम धम्मेहिं रीयइ माहणे अबहुवाई। सिसिमि एगया भगवं छायाए झाई आसी य // 320 // II संस्कृत-छाया : विरत: ग्रामधर्मेभ्यः, रीयते माहन: अबहुवादी। शिशिरे एकदा भगवान् छायायां ध्यायी आसीत् च // 320 // III सूत्रार्थ : विषय-विकारों से विरत हुए अल्पभाषी भगवान महावीर संयम में पुरुषार्थ करते हुए
SR No.004437
Book TitleAcharang Sutram Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
PublisherRajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
Publication Year
Total Pages368
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size8 MB
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