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________________ 294 // 1 - 9 - 3 - 7 (310) म श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन III सूत्रार्थ : श्रमण भगवान महावीर ने मन वचन और काय रूप दंड एवं शरीर के ममत्व का परित्याग कर दिया था, ग्रामीण लोगों के वचन रूप कंटकों को कर्मों की निर्जरा का कारण समझकर भगवान ने उन कष्टों को समभाव से सहन किया / IV टीका-अनुवाद : अब यहां यह प्रश्न होता है कि- ऐसे अनार्य देश में प्रभुजी ने विहार क्यों कीया ? इस प्रश्न के उत्तर में ग्रंथकार महर्षि कहतें हैं कि- पृथ्वीकायादि स्थावर जीव एवं बेइंद्रियादि त्रस जीवों को कष्ट देनेवाले मन, वचन एवं कायदंडका त्याग कर के तथा अपने शरीर की ममता का त्याग कर के ग्रामकंटक याने सामान्य तुच्छ मनुष्यों ने कीये हुए आक्रोश ताडन तर्जनादि कष्ट -उपसर्गों से होनेवाली कर्मनिर्जरा का उद्देश ध्यान में रखकर परमात्मा महावीरस्वामीजी ने उस अनार्य देश में विहार कीया था। V सूत्रसार : यह नितान्त सत्य है कि- कष्ट तभी तक कष्ट रूप से प्रतीत होता है, जब तक शरीर पर ममत्व रहता है। जब शरीर आदि से ममत्व हट जाता है, तब वह कष्ट दुःख रूप प्रतीत नहीं होता है। ममत्व भाव के नष्ट होने से आत्मा में परीषहों को सहन करने की क्षमता आ जाती है। फिर साधु के अंतरात्मा में किसी को दोष देने की वृत्ति नहीं रहती। इस तरह साधु में क्षमा की भावना का विकास होता है। इससे वह वैर-विरोध एवं प्रतिशोध की भावना से ऊपर उठ जाता है। वह कर्कश एवं कठोर शब्दों एवं डंडे आदि के प्रहारों को अपने कर्मो की निर्जरा का साधन मानकर सहन करता है। __ भगवान महावीर एक महान साधक थे। उनके मन में किसी भी प्राणी के प्रति द्वेष नहीं था। और उनके मन में प्रतिशोध की भावना भी नहि थी। परीषहों को सहने में वे सक्षम थे। संगम देव द्वारा निरन्तर 6 महीने तक दिए गए घोर परीषहों से भी वे विचलित नहीं हुए थे। वे कष्ट देने वाले व्यक्ति से भी घृणा नहीं करते थे। उसे अपने कर्मों की निज़रा करते में सहयोगी मानते थे। क्योंकि- कष्टों के सहन करने से कर्मों की निर्जरा होती थी। इस अपेक्षा से वह कष्टदाता कर्म निर्जरा में सहायक हो जाता है। इस तरह भगवान अनार्य मनुष्यों द्वारा कहे गए कठोर शब्दों एवं प्रहारों को समभाव पूर्वक सहन करते थे। भगवान की सहिष्णुता को स्पष्ट करने के लिए उदाहरण देते हुए सूत्रकार महर्षि आगे का सूत्र कहते हैं...
SR No.004437
Book TitleAcharang Sutram Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
PublisherRajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
Publication Year
Total Pages368
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size8 MB
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