SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 264
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 1- 9 -1 - 5 (269) 235 - यहां वस्त्र त्याग का प्रसंग ऐसा उपस्थित हुआ कि- सुवर्णवालुका नदी में पाणी के पूर से आये हुए कांटे में वह देवदूष्य-वस्त्र लगने से गिर पडा, और ब्राह्मण ने उस वस्त्र को ले लिया... V सूत्रसार : प्रस्तुत गाथा में बताया गया है कि- इन्द्र द्वारा प्रदत्त देवदूष्य वस्त्र भगवान के पास साधिक तेरह महिने रहा। उसके पश्चात् भगवान ने उसका त्याग कर दिया और वे सदा के लिए अचेलक हो गए। सभी तीर्थंकरों की यही मर्यादा है कि- वे देवदूष्य वस्त्र के अतिरिक्त अन्य किसी वस्त्र को स्वीकार नहीं करते। उसका त्याग होने के बाद वे अचेलक ही रहते हैं। भगवान महावीर ने भी उसी परम्परा का अनुकरण किया। इस गाथा में ‘चाई' और 'वोसिज्ज' दो पद दिए हैं। पहले पद का अर्थ है त्यागी। इसका तात्पर्य यह हुआ कि- त्याग करने पर ही त्यागी होता है। और साधक अपनी साधना का विकास करने के लिए या विशिष्ट साधना के लिए सदा कुछ न कुछ त्याग करता ही है। इसका यह अर्थ नहीं है कि- वह पदार्थ उसकी साधना को दूषित करनेवाला है, इसलिए वह उसका त्याग करता है। किंतु यहां तात्पर्य इतना ही है कि- विशिष्ट साधना के लिए साधक परिग्रह का त्याग करता है। जैसे तपश्चर्या की साधना करनेवाला साधक आहार-पानी का त्याग कर देता है। इससे यह समझना गलत एवं भ्रान्त होगा कि- आहार संयम का बाधक है, इत्यादि... वह साधु संयम पालन के लिए आहार का त्याग नहीं करता, किंतु विशेष तप साधना के लिए आहार का परित्याग करता है। इसी तरह नि:स्पृह भाव से वस्त्र रखते हुए भी शुद्ध संयम का पालन हो सकता है। फिर भी कुछ विशिष्ट साधक विशिष्ट साधना या शीत-ताप एवं दंशमशक आदि परीषहों को सहन करने रूप तप की विशिष्ट साधना के लिए वस्त्र का त्याग करते हैं; जैसे कि- भगवान महावीर ने किया था। भगवान ने वस्त्र का कैसे परित्याग किया इसका विस्तृत विवेचन कल्पसूत्र की सुबोधिका टीका में किया गया है। यहां वृत्तिकार ने इतना ही बताया है कि- एक बार भगवान सुवर्णबालुका नदी के किनारे चल रहे थे। उस समय उसके प्रवाह में बहकर आए हुए कांटों में फंसकर वह वस्त्र उनके कन्धे पर से गिर गया। भगवान ने उसे उठाने का प्रयत्न नहीं किया। वे उसे वहीं छोडकर आगे बढ़ गए। और एक ब्राह्मण ने उस वस्त्र को उठा लिया। अब भगवान के विहार का वर्णन करते हुए सूत्रकार महर्षि आगे का सूत्र कहते हैं... सूत्र // 5 // // 269 // 1-9-1-5 अदु पोरिसिं तिरियं भित्तिं चक्खुमासज्ज अंतसो झायइ।
SR No.004437
Book TitleAcharang Sutram Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
PublisherRajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
Publication Year
Total Pages368
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy