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________________ 218 // 1- 9 - 0-0 // श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन 10. स्फेटन... अशुभ कर्मो के चार स्थानीय रस का स्फेटन कर के तीन स्थानीय दो स्थानीय यावत् एक स्थानीय करना... 11. दहन... केवलिसमुद्घात में शुक्लध्यान स्वरूप अग्नि के द्वारा वेदनीय कर्म स्वरूप इंधन को भस्मसात् करना... और शेष नाम, गोत्र एवं आयुष्य कर्म को दग्धरज्जु के समान करना... 12. धावन... शुद्ध अध्यवसाय से मिथ्यात्व मोह के कर्मपुद्गलों को शुद्ध कर के सम्यक्त्व भाव याने क्षायोपशमिक सम्यक्त्व प्राप्त करना... आत्म प्रदेशों में रहे हुए ज्ञानावरणीयादि आठों कर्मो में उपर कही गइ बारह प्रकार की प्रक्रिया प्राय: कर के (बहुलता से) उपशमश्रेणी, क्षपकश्रेणी, केवलिसमुद्घात एवं शैलेशी कारण अवस्था में अधिकतर प्राप्त होती है, अत: उन उपशमश्रेणी आदि चार उत्तम अवस्थाओं की प्राप्ति का स्वरूप कहते हैं... उपशमश्रेणी... उपशमश्रेणी में सर्व प्रथम अनंतानुबंधि-कषायों की उपशमना कहतें हैं... इस विश्व में अविरतसम्यग्दृष्टि, या देशविरत (श्रावक), या प्रमतसंयत अप्रमत्तसंयत (साधु) इन चार में से कोई भी जीव अनंतानुबंधिकषायों की उपशमना का आरंभक होता है... वहां भी एक (प्रथम) गुणश्रेणी से दर्शनसप्तक का उपशम करतें हैं... वह इस प्रकार,तीन शुभ लेश्या तेजोलेश्या पद्मलेश्या एवं शुक्ललेश्या से विशुद्ध ज्ञानोपयोग में रहा हुआ तथा अंत:कोटाकाटि सागरोपम प्रमाण कर्मो की स्थितिवाला वह जीव परावर्त्तमान प्रकार की शुभकर्म प्रकृतियों को बांधता है, एवं प्रतिक्षण अशुभ कर्म प्रकृतियों के अनुभाग-रस को अनंतगुण हानि से क्षीण करता है तथा शुभ कर्म प्रकृतियों के अनुभाग-रस को प्रतिक्षण अनंतगुणं वृद्धि से शुभतर करता है... तथा उत्तरोत्तर भी पल्योपम के असंख्येय भाग हीन स्थिति प्रमाण कर्मबंध करने वाला यह पुण्यात्मा करण-काल से पूर्व हि अंतर्मुहूर्त काल में विशुद्ध होता हुआ तीन करण करता है... और वे प्रत्येक करण अंतर्मुहूर्त कालीन है... अब अंतर्मुहूर्त काल प्रमाण करणत्रिक एवं चौथी उपशांताद्धा का स्वरूप कहतें हैं... उन में प्रथम यथाप्रवृत्तिकरण में जीव प्रतिक्षण अनंतगुण वृद्धि से विशुद्धि का अनुभव करता है... किंतु यहां यथाप्रवृत्तिकरण में वह जीव कर्मो में स्थितिघात, रसघात, गुणश्रेणी, गुणसंक्रम तथा अपूर्वस्थितिबंध में से एक भी कार्य नहि करता... तथा द्वितीय अपूर्वकरण में वह जीव प्रतिक्षण अपूर्व अपूर्व क्रिया-काल में प्रवेश करता है और प्रथम क्षण मात्र समय में हि वह जीव कर्मो का स्थितिघात, रसघात, गुणश्रेणी और गुणसंक्रम तथा अपूर्व स्थितिबंध यह पांच कार्य युगपद् याने एक साथ करता है... और अपूर्वकरण के काल पर्यंत प्रतिक्षण यह पांच कार्य अपूर्व अपूर्व प्रकार से करता रहता है...
SR No.004437
Book TitleAcharang Sutram Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
PublisherRajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
Publication Year
Total Pages368
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size8 MB
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