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________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 卐१-५-3-१(१६४)॥ 399 ममत्व के अभाव से अपरिग्रही होते हैं... ऐसा यह अपरिग्रह भाव तीर्थंकर परमात्मा के आगम स्वरूप वाणी को सुनकर मेधावी याने संयम की मर्यादा में रहे हुए, तथा हेय एवं उपादेय के ज्ञाता, श्रमण मुनी पंडित याने गणधर आदि के विधि-निषेध नियामक वचनों को सुनकर सचित्त एवं अचित्त परिग्रह के त्याग से अपरिग्रही होते हैं... प्रश्न- यहां प्रश्न यह होता है कि- निरावरणज्ञानवाले तीर्थंकरों का वाग्योग याने वाणी कब प्रवृत्त होती है ? कि- जिस को सुनकर प्राणी अपरिग्रही बने... उत्तर- धर्मकथा के अवसर में... आर्य-तीर्थंकरों ने समता याने सम शत्रु-मित्रता के भाव से धर्म का स्वरूप कहा है... अन्यत्र भी कहा है कि- कोइक प्राणी चंदन के द्रव से विलेपन करे तथा अन्य प्राणी सुथार के उपकरण स्वरूप वांसले (रंधे). से शरीर की चमडी (त्वक्) उतारे तब भी महर्षि-श्रमण मुनि नितांत समभाववाले होते हैं... इसी प्रकार कोइक प्रशंसा करे और अन्य निंदा करे तब भी साधु-श्रमण समभाव रखें... अथवा देश आर्य, भाषा आर्य एवं चारित्र आर्यों में सम दृष्टि से परमात्मा ने धर्म कहा है, जैसे कि- “जहा पुण्णस्स कत्थई” इत्यादि... अथवा शमवालों के जो भाव वह शमिता अर्थात् सभी त्याज्य पदार्थों से दूर रहनेवाले आर्य तीर्थंकरो ने इंद्रिय एवं नोइंद्रिय (मन) के उपशम की स्थिति में अच्छी तरह से धर्म कहा है.... - अन्य मतवालों ने भी अपने अपने अभिप्राय से धर्म कहा है, अत: उन धर्मों की निरर्थकता दर्शाते हुए कहते हैं कि- देव एवं मनुष्यों की पर्षदा में तीर्थंकर परमात्मा कहते हैं कि- जिस प्रकार यहां मैंने मोक्ष के मार्ग स्वरूप ज्ञानादि धर्म का सेवन कीया है... अथवा इंद्रियां एवं नोइंद्रिय (मन) के उपशम स्वरूप एवं समभाव स्वरूप ज्ञान-दर्शन-चारित्रात्मक इस मोक्षमार्ग में मुमुक्षु ऐसा मैंने स्वयमेव संधि याने एक जन्म से जन्मांतर में जीव को जोडनेवाले आठ प्रकार के कर्मो की परंपरा स्वरूप संधि का क्षय कीया है... इसलिये यह निश्चित हुआ कि- तीर्थंकरो ने जो मोक्षमार्ग स्वरूप धर्म कहा है, वह हि मोक्षमार्ग है... अन्य नहि... क्योंकिजिस प्रकार मैंने कर्मो का क्षय कीया है, ऐसा कर्मक्षय अन्य तीर्थिकों के प्रणीत मोक्षमार्ग में संभवित नहि है... क्योंकि- वह मोक्षमार्ग समीचीन याने सही (सच्चा) नहि है... अत: उपाय के अभाव में कार्य सिद्ध कैसे हो ? ___ अब इस सूत्र का उपसंहार करते हुए परमात्मा कहते हैं कि- जिस प्रकार इस मोक्षमार्ग में व्यवस्थित रहकर मैंने कठोर तपश्चर्या से कर्मो का क्षय कीया है, इसी प्रकार अन्य मुमुक्षु प्राणी भी संयमानुष्ठान में एवं तपश्चर्या में अपनी शक्ति एवं सामर्थ्य को छुपावें नहिं अर्थात्
SR No.004436
Book TitleAcharang Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
PublisherRajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
Publication Year
Total Pages528
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size12 MB
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