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________________ करना चाहिए। ज्ञानाभ्यास करती हुई आत्मा लोकालोक प्रकाशक केवलज्ञान प्राप्त करके शाश्वत सुख का उपभोक्ता बन जाती है। ज्ञानवान् आत्मा ही आचारवान् होकर आत्मश्रेय के पथ का पथिक बनती हैं। आचारों की पवित्रता से विचारों की विशुद्धता एवं मानसिक निर्मलता प्रवर्तमान होती है। धर्म का मूल है आचरण / उससे उच्चारणा एवं उकृष्टता का सौभाग्य उद्घाटित होता है। अतः श्रमण धर्म प्रधान आचार एवं श्रावक धर्म प्रधान आचारों की व्याख्या चतुर्थ अध्याय में की गई है। पंचम अध्याय में कर्मों का स्वरुप, कर्मों का स्वभाव, कर्म की पौद्गलिकता, कर्म के भेद, प्रभेद, कर्म का अमूर्त पर प्रभाव, आत्मा का उपघात, कर्म विपाक तथा कर्म से सर्वथा मुक्त होकर आत्मा उर्ध्वगमन किस प्रकार करती है इत्यादि विवेचन किया गया है। षष्टम अध्याय में आचार्य हरिभद्रसूरि की योग प्रक्रिया का चित्रण सर्वथा निराला एवं निरुपमेय है। योग की व्युत्पत्ति, योग की परिलब्धियां एवं योग की आठ दृष्टियों का जैसा वर्णन उनके योग ग्रन्थों में वर्णित है, वैसा अन्यत्र दुर्लभ है। आपने योग को कल्पवृक्ष एवं चिन्तामणी सदश निरूपित करके, योग की महत्ता को चरम सीमा तक पहुंचा दिया है। आचार्य श्री हरिभद्रसूरि साहित्य गगन मण्डल में सूर्य की भाँति देदीप्यमान हुए। समस्त दर्शन के दार्शनिकों रूपी नक्षत्रों को अपने साहित्य में उन्होंने किस प्रकार अवकाश दिया? अन्य दर्शन की अवधारणाओं का उल्लेख एवं उनके उन्नायकों को आदर सूचक वचनों से सम्बोधित कर किस प्रकार उदाराशय प्रगट किया ? एवं आत्मा, कर्म, मोक्ष, योग, प्रमाण, सर्वज्ञ आदि समस्त दार्शनिक तत्त्वों का किस प्रकार विश्लेषण किया ? उनके इस दार्शनिक चिन्तन के वैशिष्ट्य विशेष रूप को सप्तम अध्याय में संकलित करने का प्रयास मैंने किया है। इस शोध-प्रबन्ध रुपी महायज्ञ का प्रारम्भ पौराणिक इतिहास को उजागर करती महाकवि माघ एवं सिद्धर्षिगणि की जन्मस्थली भीनमाल से हुआ। में अपने आपको गौरवशाली मानती हूं कि उन महाकवि महापुरुषों के ज्ञान पुंज एवं तपोपुंज के पावन परमाणु मुझे जन्म से ही मिले, मेरे स्वयं का यह जन्मसिद्ध अधिकार था, जो मुझे प्रतिपल विद्यासाधन एवं तपोमय जीवन जीने के लिए प्रेरित करता रहा। अतः प्रारम्भ से ही व्यवहारिक एवं आध्यात्मिक शिक्षण में में उत्तरोत्तर बढती रही / व्यवहारिक शिक्षण दसवीं परीक्षा उत्तीर्ण करने के पश्चात् विद्यालय में विदाई समारोह का कार्यक्रम रखा गया जिसमें दसवीं उत्तीर्ण IA 24
SR No.004434
Book TitleHaribhadrasuri ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnekantlatashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trsut
Publication Year2008
Total Pages552
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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