SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 316
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ कम दूध देने वाली बताकर असत्य बोलना। 3. भूमि अलीक-स्वयं की भूमि को दूसरों की और दूसरों की भूमि स्वयं की बताकर झूठ बोलना। 4. न्यासापहरण - आवश्यकतानुसार दूसरों द्वारा सुरक्षा आदि के उद्देश्य से रूपये, सोना, चाँदी रखा जाता है उसे मेरे पास नहीं रखा' इत्यादि.कहकर अपहरण कर लेना। 5. कूटसाक्ष्य-राग द्वेष अथवा मत्सरता आदि के वश जो कृत्य अपने सामने नहीं हुआ है उसके विषय में असत्य साक्षी देना। इस प्रकार असत्य भाषण परिहार सत्याणुव्रत कहलाता है। इस प्रकार मृषावाद के भेद ‘श्रावक प्रज्ञप्ति'७९ श्रावक धर्मविधिप्रकरण आदि में मिलते है। लेकिन तत्त्वार्थसूत्र, धर्मबिन्दु में इन भेदों का वर्णन नहीं मिलता है। तथा ‘उपासकदशाङ्ग' की टीका में आचार्य अभयदेवसूरि नवांगीटीकाकार ने इनको वचनान्तर से मृषावाद के अतिचार ऐसा कहा है तथा साथ में यह भी कहा कि आवश्यक आदि में इन्हीं को मृषावाद के भेद कहे है जैसे कि - “वाचनान्तरे तु ‘कन्नालियं गवालियं भूमालियं नासावहारे कूडसक्खिज्ज सन्धिकरणे त्ति पठ्यते, आवश्यकादौ पुनरिमे स्थूलमृषावाद भेदा उक्ताः। इस अणुव्रत का भी पूर्ण पालने करने के लिए इनके अतिचारों को जानकर उसका त्याग करना चाहिए जिसका उल्लेख उपासकदशाङ्ग' में मिलता है “तयाणन्तरं च णंथूलगस्स मुसावायवेरमण पञ्च अइयारा जाणियव्वा न समायरिव्वा - तं जहा-सहसाअब्भक्खाणे रहसाअब्भक्खाणे, सदारमन्त भेए मोसोवएसे कूडलेहकरणे (कन्नालियं भूमालियं नासावहारे कूडसक्खिजं संधिकरणे)।८२ . 1. सहसा अभ्याख्यान 2. रहस्याभ्याख्यान 3. स्वदारमन्त्रभेद 4. मृषोपदेश 5. कूटलेखकरण ये पाँच अतिचार है तथा दूसरी वाचना में कन्या अलीक, गो अलीक, भूमि अलीक, न्यास अपहरण, और कूटसाक्षी इनको अतिचार कहे है। लेकिन आचार्य हरिभद्रसूरि ने श्रावक प्रज्ञप्ति आदि में तथा आवश्यकसूत्र आदि में तो इनको मृषावाद के भेद ही स्वीकारे है तथा ‘सहसाअभ्याख्यान' आदि को ही अतिचार माना है। जिसका विवरण हमें इस प्रकार मिलता है। सहसा अब्भक्खाणं रहसा य सदारमंतभेयं च। मोसोवएसयं कूडलेहकरणं च वज्जिज्जा // 83 इस गाथा में सहसाअभ्याख्यान पाँच सत्याणुव्रत के अतिचार है। 1. सहसा अभ्याख्यान - किसी प्रकार का विचार किये बिना सहसा तु चोर है, परदारगामी है' इत्यादि वचन बोलकर दोषारोपण करना। 2. रहस्याभ्याख्यान - दूसरे के एकान्त में किये जाने वाले व्यवहार को अन्यजनों से कहना। 3. स्वदारमन्त्रभेद - अपनी पत्नी के द्वारा विश्वस्तरूप में कहे गये वचनों को दूसरों से कहना। 4. मृषोपदेश - जो वस्तुस्वरूप जिस प्रकारका नहीं है उसे उस प्रकारका बतलाकर प्राणिओं को | आचार्य हरिभद्रसूरि का व्यक्तित्व एवं कृतित्व VIII VIIINA चतुर्थ अध्याय | 260 )
SR No.004434
Book TitleHaribhadrasuri ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnekantlatashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trsut
Publication Year2008
Total Pages552
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy