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________________ इन सूत्रों में प्रधान सूत्र “नमुत्थुणं' है जो वीतराग अरिहंत परमात्मा की भाववाही विशेषताओं से संयोजित स्तुतिरूप है। अरिहंत परमात्मा स्वरूप एक विशिष्ट कोटि के “तीर्थंकर" नामकर्म के उपार्जन से प्राप्त होता है और जब उस उच्च आत्माका रत्नकुक्षिणि माता के गर्भ में अवतरण होता है तब देवलोक में इन्द्र का सिंहासन कम्पित हो जाता है। अवधिज्ञान के उपयोग से परमात्मा के च्यवनकल्याणक को जानकर अपने सिंहासन से नीचे उतरकर सात-आठ कदम उस दिशा तरफ अग्रसर होकर प्रस्तुत प्रणिपात सूत्र से भगवान् की स्तुति करते है। "ललित-विस्तरावृत्ति' ग्रन्थ के प्रारंभ में चैत्यवंदन का माहात्म्य धर्म के अधिकारी के लक्षण, सम्यक् चैत्यवंदन ही शुभभाव का कारण होने से फलदाता बन सकता है लेकिन सम्यक् कारण को नहीं जानने वाला अर्थ को जानने में समर्थ नहीं बन सकता है अत: कहा गया है कि - न ह्यविदिततदर्थाः प्रायस्तत्सम्यक्करणे प्रभविष्णव:१०४ जो सम्यक् करण को सुंदर रीते से जान लेता है वह ही धर्म का अधिकारी होता है और उसके जीवन में विशिष्ट कर्म के क्षय से बहुमानभाव विधितत्परता और उचितप्रवृत्ति रूप गुण आ सकते है। . “एतद् बहुमानिनो विधिपरा उचित प्रवृतयश्च'१०५ जैन धर्म के वैशिष्ट्य को आचार्य हरिभद्रसूरि ने अद्भुत शैली से आख्यायित किया है जो अपने आप में अद्भुत है। "सर्वथा निरूपणीयं प्रवचन गाम्भीर्य, विलोकनीया तन्त्रान्तरस्थितिः, दर्शनीयं ततोऽस्याधिकत्वम् इत्यादि।१०६ / आर्हत् प्रवचन की गम्भीरता का योग्य रूप से अन्वेषण करना चाहिए, अन्य दर्शनों की स्थिति का भी योग्य सर्वेक्षण करना चाहिए, इतर दर्शनों की अपेक्षा कष, छेद और ताप परीक्षा में उत्तीर्ण जैन-दर्शन के . वैशिष्ट्य का प्रतिपादन करना चाहिए इत्यादि अनेक विशेषताओं से विशिष्ट जैन दर्शन है। इस ग्रन्थ में स्थान-स्थान पर दार्शनिक अवधारणाओं की तटस्थ भाव से तर्क पूर्ण समीक्षा की है। अरिहंत परमात्मा के विशिष्ट स्वरूप का सतर्क प्रतिपादन किया है, तथा आत्मोत्थान के उपाय, सक्रम साधनामार्ग भी बताया गया है। आचार्य भी न्यायप्रिय थे और न्याय की शैली से शब्द पर चिन्तन देने की उनकी श्रेष्ठतम प्रणाली रही है। “लोगुत्तमाणं' शब्द पर अपना मति, मन्थन प्रकट करते हुए कहते है कि “समुदायेष्वपि प्रवृत्तिः शब्दा अनेकधाऽवयवेष्वपि प्रवर्तन्ते स्तवेष्वप्येवमेव वाचक प्रवृत्तिः इति / न्याय संदर्शनार्थमाह लोकोत्तमेभ्यः / 107 जो शब्द समुदाय को अभिव्यक्त करता है वह कभी-कभी समुदाय के किसी न किसी भाग को भी व्यक्त करता रहता है अर्थात् समुदाय के अनेक भागों में से कुछ भिन्न-भिन्न भाग के लिए प्रवर्तमान बनता है और स्तुति में भी ऐसे शब्द का उपयोग होता है। [ आचार्य हरिभद्रसूरि का व्यक्तित्व एवं कृतित्व VIIIIN VA प्रथम अध्याय | 60
SR No.004434
Book TitleHaribhadrasuri ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnekantlatashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trsut
Publication Year2008
Total Pages552
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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