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________________ धर्म का मर्म : भारतीय-जीवन दृष्टि - धर्मशब्द जिसे अंग्रेजी में Religion (रिलीजन) कहा जाता है, उसकी व्युत्पत्ति हमें यह बताती है कि धर्म एक योजक तत्व है, वह जोड़ता है। रिलीजन शब्द री + लीजेर से बना है। जिसका अर्थ होता है- पुनः जोड़ने वाला। जबकि सम्प्रदाय या School शब्द विभाजन का सूचक है। इस प्रकार जहां धर्म का कार्य जोड़ना है, वहां सम्प्रदाय का कार्य विभाजित करना है। यदि हम इस आधार पर ही कोई निष्कर्ष निकालें तो हमें कहना होगा कि साम्प्रदायिकता में धर्म नहीं (रहा हुआ) है। धर्म में रहकर तो सम्प्रदाय में रहा जा सकता है, किंतु सम्प्रदाय में रहकर कोई धर्म में नहीं रह सकता है। यदि इसे और अधिक स्पष्ट करें तो इसका तात्पर्य होगा कि यदि व्यक्ति धार्मिक है और वह किसी सम्प्रदाय से जुड़ा है तो वह बुरा नहीं, किंतु यदि व्यक्ति सम्प्रदाय में ही जीता है और धर्म में नहीं, तो वह निश्चय ही समाज के लिए एक चिंता का विषय है। आज स्थिति यह है कि हम सब सम्प्रदायों में जीते हैं, धर्म में नहीं। इसीलिए आज साम्प्रदायिकता मानव मात्र के लिए खतरा बन रही है। धर्म स्वभाव है, वह आंतरिक है। सम्प्रदाय का सम्बंध आचार की बाह्य रुढ़ियों तक सीमित है इसलिए वह बाहरी है। सम्प्रदाय यदि धर्म से रहित है तो वह ठीक वैसा ही है जैसे आत्मा से रहित शरीर! सम्प्रदाय धर्म का शरीर है और शरीर का होना बुरा भी नहीं, किंतु जिस प्रकार शरीर में से आत्मा के निकल जाने के बाद वह शव हो जाता है और परिवेश में सड़ांध व दुर्गंध फैलाता है उसी प्रकार धर्म से रहित सम्प्रदाय भी समाज में घृणा और अराजकता उत्पन्न करते हैं, सामाजिक जीवन को गलित व सड़ांधयुक्त बनाते हैं। शायद यहां पूछा जा सकता है कि धर्म और सम्प्रदाय में अंतर का आधार क्या है ? वस्तुतः धर्म आस्था / निष्ठा के साथ मानवीय सद्गुणों को जीवन में जीने के प्रयास से भी जुड़ा है, जबकि सम्प्रदाय केवल कुछ रुढ़ क्रियाओं को ही पकड़कर चलता है। नैतिक सद्गुण त्रैकालिक सत्य हैं, वे सदैव शुभ हैं। जबकि साम्प्रदायिक रुढ़ियों का मूल्य युग विशेष और समाज विशेष में ही होता है अतः वे सापेक्ष हैं। जब इन सापेक्षिक सत्यों को ही एक सार्वभौम सत्य मान लिया जाता है तो इसी से सम्प्रदायवाद का जन्म होता है। यह सम्प्रदायवाद वैमनस्य और घृणा के बीज बोता है। अतः कहा जा सकता है कि जहां धर्म आपस में प्रेम करना सिखाता है वहीं (137)
SR No.004424
Book TitleBharatiya Sanskruti ke Multattva Sambandhit Aalekh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2015
Total Pages216
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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