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________________ है। वे गीता के कृष्ण के समान धर्म-संस्थापना के साथ-साथ न तो साधुजनों की रक्षा का दावा करते हैं और न दुष्टों के प्रहाण की बात कहते हैं। दुष्टों के प्रहाण की बात उनकी विशुद्ध अहिंसक वाणी से मेल नहीं खाती है। यद्यपि अंगुत्तरनिकाय में बुद्ध ने शिक्षापदों की प्रज्ञप्ति के जो कारण दिए हैं, वे गीता के समान ही हैं,54 तथापि लोक-मंगल के आदर्श को लेकर तीनों विचारणाओं में महत्त्वपूर्ण साम्य है। इन आचार-दर्शनों का केंद्रीय या प्रधान तत्त्व परोपकार ही है, यद्यपि उसे अध्यात्म या परमार्थ का विरोधी नहीं होना चाहिए। गीता में भी जिन-जिन स्थानों पर लोकहित का निर्देश है, वहां निष्कामता की शर्त है ही। निष्काम और आध्यात्मिक या नैतिक-तत्त्वों के अविरोध में रहा हुआ परार्थ ही गता को मान्य है। गीता में भी स्वार्थ और परार्थ की समस्या का सच्चा हल आत्मवत् सर्वभूतेषु की भावना में खोजा गया है। जब सभी में आत्मदृष्टि उत्पन्न हो जाती है, तो न स्वार्थ रहता है, न परार्थ, क्योंकि जहां स्व' हो, वहां स्वार्थ रहता है, जहां पर हो, वहां परार्थ रहता है, लेकिन सर्वात्मभाव में 'स्व' और 'पर' नहीं होते हैं, अतः उस दशा में स्वार्थ और परार्थ भी नहीं होता है। वहां होता है केवल, परमार्था भौतिक-स्वार्थों से ऊपर परार्थ का स्थान सभी को मान्य है। स्वार्थ और परार्थ के सम्बंध में भारतीय आचार-दर्शनों के दृष्टिकोण को भतृहरि के इस कथन से भलीभांति समझा जा सकता है- प्रथम, जो स्वार्थ का परित्याग कर परार्थ के लिए कार्य करते हैं, वे महान् हैं, दूसरे, जो स्वाथ के अविरोध में परार्थ करते हैं, अर्थात् अपने हितों का हनन नहीं करते हुए लोकहित करते हैं, वे सामान्य जन हैं; तीसरे, जो स्वहित के लिए परहित का हनन करते हैं, वे अधम (राक्षस) कहे जाते हैं, लेकिन चौथे, जो निरर्थक परहित का हनन करते हैं, उन्हें क्या कहा जाए, वे तो अधमाधम हैं।55 संदर्भ1. आत्मानं सततं रक्षेत् दारैरपि धनैरपि - चाणक्य नीति 2. स्वमर्थ यः परित्यज्य परार्थमनुतिष्ठति / मिथ्या चरित मित्रार्थेयश्च मूढ़ स उच्यते / / - विदुरनीति 3. आत्मार्थे जीवलोकेऽस्मिन् को न जीवति मानवः।। परं परोपकारार्थ यो जीवति स जीवति // - सुभाषित भाण्डागारम् जीवितान्मरणं श्रेष्ठं परोपकृतिवर्जितात् / नीति प्रवेशिका, मैकेन्जी, हिन्दी अनुवाद, पृ. 234 (99)
SR No.004424
Book TitleBharatiya Sanskruti ke Multattva Sambandhit Aalekh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2015
Total Pages216
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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