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________________ जैन धर्म एवं दर्शन-162 .. जैन-तत्त्वमीमांसा-14 करने पर कहाँ जाऊँगा।' वस्तुतः, ये ही ऐसे प्रश्न हैं, जिनसे दार्शनिक-चिन्तन का विकास होता है और तत्त्वमीमांसा का आविर्भाव होता है। ___ तत्त्वमीमांसा वस्तुतः विश्व-व्याख्या का एक प्रयास है। इसमें जगत् के मूलभूत उपादानों तथा उनके कार्यों का विवेचन विभिन्न दृष्टिकोणों से किया जाता है। विश्व के मूलभूत घटक, जो अपने अस्तित्व के लिये किसी अन्य घटक पर आश्रित नहीं हैं तथा जो कभी भी अपने स्व-स्वरूप का परित्याग नहीं करते हैं, वे सत् या द्रव्य कहलाते हैं। विश्व के तात्त्विक आधार या मूलभूत उपादान ही सत् या द्रव्य कहे जाते हैं और जो इन द्रव्यों का विवेचन करता है, वही द्रव्यानुयोग है। विश्व के सन्दर्भ में जैनों का दृष्टिकोण यह है कि यह विश्व अकृत्रिम है ('लोगो अकिटिमो खलु'-मूलाचार, गाथा-7/2)। इस लोक का कोई निर्माता या सृष्टिकर्ता नहीं है। अर्द्ध-मागधी आगम-साहित्य में भी लोक को शाश्वत बताया गया है। उसमें कहा गया है कि यह लोक अनादिकाल से है और रहेगा। ऋषिभाषित के अनुसार, लोक की शाश्वतता के इस सिद्धान्त का प्रतिपादन भगवान पार्श्वनाथ ने किया था। गे चलकर भवगतीसूत्र में महावीर ने भी इसी सिद्धान्त का अनुमोदन किया। जैन-दर्शन लोक का कोई रचयिता एवं नियामक नहीं है, वह स्वाभाविक है और अनादिकाल से चला आ रहा है, किन्तु जैनागमों में लोक के शाश्वत कहने का तात्पर्य कथमपि यह नहीं है कि उसमें कोई परिवर्तन नहीं होता है। विश्व के सन्दर्भ में जैन-चिन्तक जिस नित्यता को स्वीकार करते हैं, वह नित्यता कूटस्थ-नित्यता नहीं, परिणामी-नित्यता है, अर्थात् वे विश्व को परिवर्तनशील मानकर भी मात्र प्रवाह या प्रक्रिया की अपेक्षा से नित्य या शाश्वत कहते हैं। __ भगवतीसूत्र में लोक के स्वरूप की चर्चा करते हुए लोक को पंचास्तिकायरूप कहा गया है। जैनदर्शन में इस विश्व के मूलभूत उपादान पाँच अस्तिकाय द्रव्य हैं- 1. जीव (चेतन तत्त्व), 2. पुद्गल (भौतिक तत्त्व), 3. धर्म (गति का नियामक तत्त्व), 4. अधर्म (स्थिति-नियामक तत्त्व) और 5. आकाश (स्थान या अवकाश देने वाला तत्त्व)। ज्ञातव्य है कि यहाँ काल को स्वतन्त्र तत्त्व नहीं माना गया है। यद्यपि
SR No.004420
Book TitleJain Tattva Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2015
Total Pages152
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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