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________________ जैन धर्म एवं दर्शन-278 जैन - तत्त्वमीमांसा -130 ठगने के लिए सामूहिक रूप से कोई कम्पनी खोलना, अथवा किसी को मारने के लिए सामूहिक रूप में कोई षड्यंत्र करना आदि। मात्र शारीरिक-व्यापाररूप ईर्यापथिकक्रिया, जिसका विवेचन पूर्व में किया जा चुका है, को मिलाकर जैन-विचारणा में क्रिया के पच्चीस भेद तथा आस्रव के 39 भेद होते हैं। कुछ आचार्यों ने मन, वचन और काय-योग को मिलाकर आस्रव के 42 भेद भी माने हैं। आस्रवरूप क्रियाओं का एक संक्षिप्त वर्गीकरण सूत्रकृतांग में भी उपलब्ध है। उसमें निम्न तेरह प्रकार की कि याओं को आस्रवरूप माना गया है। संक्षेप में, वे क्रियाएँ निम्न प्रकार से हैं। 1. अर्थ-क्रिया-अपने किसी प्रयोजन (अर्थ) के लिए क्रिया करना; जैसे अपने लाभ के लिए दूसरे का अहित करना) 2. अनर्थ-क्रिया- बिना किसी प्रयोजन के किया जाने वाला कर्म; जैसे- . व्यर्थ में किसी को सताना। हिंसा-किं या- अमुक व्यक्ति ने मुझे अथवा मेरे प्रियजनों को कष्ट दिया है, अथवा देगा, यह सोचकर उसकी हिंसा करना। अकस्मात्-क्रिया- शीघ्रतावश अथवा अनजाने में होने वाला पाप कर्म; जैसे घास काटते-काटते जल्दी में अनाज के पौधे को काट देना। 5. दृष्टिविपर्यास-क्रिया- मतिभ्रम से होने वाला पाप-कर्म; जैसे- चोरादि के भ्रम में साधारण अनपराधी पुरुष को दण्ड देना, मारना आदि, जैसेदशरथ के द्वारा मृग के भ्रम में किया गया श्रवणकुमार का वध। मृषा-क्रिया- झूठ बोलना। अदत्तादान-क्रिया- चौर्य-कर्म करना। अध्यात्म-क्रिया- बाह्य निमित्त के अभाव में होने वाले मनोविकार, अर्थात् बिना समुचित कारण के मन में होने वाला क्रोध आदि दुर्भाव। 9. मान-क्रिया- अपनी प्रशंसा या घमण्ड करना। 10. मित्र-क्रिया-प्रियजनों,पुत्र, पुत्री, पुत्रवधू, पत्नी आदि को कठोर दण्ड देना। 11. माया-क्रिया-कपट करना, ढोंग करना। 12. लोभ-क्रिया- लोभ करना।
SR No.004420
Book TitleJain Tattva Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2015
Total Pages152
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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