SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 32
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जैन धर्म एवं दर्शन-318 - जैन ज्ञानमीमांसा-26 करने को बाध्य है - ऐसा नहीं, वरन् जो व्यक्ति के द्वारा किया जाने वाला है, उसे सर्वज्ञ जानता है - ऐसा मानने पर सर्वज्ञता की धारणा में पुरुषार्थ और व्यक्ति की स्वतन्त्रता का अपलाप नहीं होता। श्री यदुनाथ सिन्हा भी लिखते हैं कि ईश्वर का पूर्वज्ञान भी मानवीय-स्वतन्त्रता का विरोधी नहीं है। प्राक्दृष्टि अथवा पूर्वज्ञान का अर्थ अनिवार्यतः पूर्वनिर्धारण नहीं है। इस प्रकार, हम देखते हैं कि सर्वज्ञतावाद निर्धारणवाद या नियतिवाद नहीं है। क्या केवलज्ञान निर्विकल्प है ? पण्डित कन्हैयालालजी लोढ़ा ने सर्वज्ञता के सम्बन्ध में एक यह प्रश्न उपस्थित किया है कि केवलज्ञान की प्राप्ति होने पर विचार-विकल्प रहते हैं या नहीं रहते हैं ? सामान्य दृष्टिकोण यह है कि केवलज्ञान की अवस्था निर्विचार और निर्विकल्प की अवस्था है, किन्तु जैन-कर्म-सिद्धान्त की दृष्टि से यह प्रश्न उपस्थित होता है कि केवली में ज्ञानोपयोग और दर्शनोपयोग- दोनों ही होते हैं। दर्शनोपयोग को निर्विकल्प या अनाकार तथा ज्ञानोपयोग को सविकल्प या साकार माना गया है। पुनः, केवली भी जब चौदहवें गुणस्थान में शुक्लध्यान के चतुर्थ पाद पर आरूढ़ होते हैं, तब ही वे निर्विचार अवस्था को प्राप्त होते हैं। इसका तात्पर्य यह है कि केवलज्ञान की अवस्था में विचार तो रहता है, क्योंकि केवलज्ञानी जब तक सयोग-अवस्था में रहता है, तब तक उसकी मन, वचन और काया की प्रवृत्ति होती है। उसमें मनोयोग का अभाव नहीं है, मन की प्रवृत्ति है, अतः विचार है। यदि केवली निर्विचार या निर्विकल्प होता, तो फिर उसे अयोगीकेवली- अवस्था में पहले स्थूल मन और फिर सूक्ष्म मन के निरोध की आवश्यकता ही नहीं रहती। मन की प्रवृत्तियों का निरोध यदि अयोगीकेवली अवस्था में ही होता है, तो फिर सयोगीकेवली-अवस्था में मन क्या कार्य करता है ? क्योंकि निर्विकल्पता की अवस्था में तो मन के लिए कोई कार्य ही शेष नहीं रहता है। यदि ऐसा मानें कि केवली में भाव-मन नहीं रहता है, मात्र द्रव्य-मन रहता है, किन्तु द्रव्यमन भी बिना भाव-मन के नहीं रह सकता। भाव-मन के अभाव में द्रव्य-मन तो मात्र एक पौद्गलिक-संरचना होगा, जो जड़ होगा और जड़ में विचार–सामर्थ्य संभव नहीं है और विचार के बिना मनोयोग के निरोध का भी कोई अर्थ
SR No.004419
Book TitleJain Gyan Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2015
Total Pages184
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy