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________________ आगम निबंधमाला पुलाक", और आधाकर्मी आहारादि की मन से इच्छा करने मात्र से "चारित्र पुलाक" नियंठा होना कहा है / इस प्रकार टीकाकार कथित भेद-प्रभेद और उनकी व्याख्याएं अपने आप में अनेक शंकाओं से भरी असमाधित ही रहती हैं और आगम के आशय को स्पष्ट न करके भ्रमित ही करती है / अत: प्रथम प्रज्ञापना द्वार में कथित पाँच प्रकारों से लब्धि की अपेक्षा किया गया उपरोक्त अर्थ समझना ही आगमसम्मत है एवं सर्व शंकाओं के निवारण योग्य है / ज्ञान एवं दर्शन में क्रमशः स्खलना या शंका होने से पुलाक निर्ग्रन्थ का सम्बन्ध करने की अपेक्षा चारित्र के मूल गुण या उत्तर गुण प्रतिसेवना का सम्बन्ध करना ही उचित होता है / .. क्यों कि नियंठों का परिवर्तन आदि चारित्र मोह के उदय से होता है जबकि स्खलना या शंका का होना ज्ञानावरणीय या दर्शन मोहनीय कर्म से सम्बन्धित है / इसलिए आसेवना पुलाक का विकल्प करना और छोटे छोटे दोषों से उसकी संगति करना एक क्लिष्ट कल्पना ही है / जबकि सूत्रोक्त 36 ही द्वार लब्धि प्रत्ययिक पुलाक की विवक्षा से सरलता पूर्वक समझे जा सकते हैं। अत: टीकाकार निर्दिष्ट भेद एवं उनका स्वरूप तर्क संगत एवं आगम सम्मत न होने से उपादेय नहीं है / इसी कारण उक्त पाँचों भेदों का स्वरूप लब्धि प्रयोग अवस्था से ज्ञानादि का निमित मानकर उक्त विधि से समझ लेना चाहिए / 2. बकुश नियंठा- यह नियंठा भी संयम ग्रहण करने के प्रारंभ में नहीं आता है / कुछ संयम पर्याय के बाद पुलाक के उत्कष्ट चरित्र पर्यव से अनत गुण अधिक चरित्र पर्यव हो जाने पर उत्तर गण के दोष रूप शिथिल प्रवतियों के आचरण से यह नियंठा आता है अर्थात् शरीर तथा उपकरणों की विभषा करने वाला, हाथ पैर मुख, शय्यासंथारा, वस्त्रादि को बिना खास प्रयोजन धोने वाला या बार-बार धोनेवाला तथा अन्य भी अनेक शिथिल प्रवतियों को अपनी रुचि व आदत से करने वाला व संयम परिणामों की जागरुकता(प्रगतिशीलता) [43 /
SR No.004412
Book TitleAgam Nimbandhmala Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTilokchand Jain
PublisherJainagam Navneet Prakashan Samiti
Publication Year2014
Total Pages240
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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