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________________ 258 वर्ण, जाति और धर्म .. जो भी सुन्दर फल निकला वह सबके सामने है / वस्तुतः जैनधर्मकी उदार . वृत्ति ऐसे स्थल पर ही दृष्टिगोचर होती है। जिस प्रकार. कालकी गतिका निर्णय करना कठिन है उसी प्रकार किसी व्यक्तिके कब क्या परिणाम होंगे यह समझना भी कठिन है। जो वर्तमान कालमें लुटेरा और लम्पटी दिखलाई देता है वही उत्तरकालमें साधु वनकर आत्महित करता हुआ भी देखा जाता है। इसमें न तो किसीको जाति बाधक है और न साधक है। अतएव सबको यही श्रद्धान करना चाहिए कि समवसरण एक धर्मसभा होनेके नाते उसमें शूद्रादि सभी मनुष्योंको जानेका अधिकार रहा है और रहेगा। इसकी पुष्टिमें हम पहले आगम प्रमाण तो दे ही आये हैं साथ ही हम यह भी सूचित कर देना चाहते हैं कि पुराण साहित्यमें भी ऐसे उदाहरण मिलते हैं जो इस कथनका समर्थन करनेके लिए पर्याप्त हैं। जिनमन्दिर प्रवेश मीमांसा शूद्र जिनमन्दिरमें जाएँ इसका कहीं निषेध नहीं___पहले हम अागम और युक्तिसे यह सिद्ध कर आये हैं कि अन्य वर्णवाले मनुष्यों के समान शूद्रवर्णके मनुष्य भी जिनमन्दिर में जाकर दर्शन और पूजन करनेके अधिकारी हैं। जिस धर्ममें मन्दिरमें जाकर दर्शन और पूजन करनेकी योग्यता तिर्यञ्चोंमें मानी गई हो उसके अनुसार शूद्रोंमें इस प्रकारकी योग्यता न मानी जाय यह नहीं हो सकता। अभी कुछ काल पहिले दत्साओंको मन्दिरमें जानेका निषेध था। किन्तु सत्य बात जनताकी समझमें आ जानेसे यह निषेधाज्ञा उठा ली गई है / जब निषेधाज्ञा थी तब दस्साभाई मन्दिर में जाकर पूजा करनेकी पात्रता नहीं रखते . थे यह बात नहीं है। यह वास्तवमें धार्मिक विधि न होकर एक सामाजिक बन्धन था जो दूसरोंकी देखादेखी जैनाचारमें भी सम्मिलित कर लिया
SR No.004410
Book TitleVarn Jati aur Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1989
Total Pages460
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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