SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 385
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ पाचन संस्थान ग्रहण किया गया भोज्य पदार्थ प्रत्यक्ष रूप से शरीर में प्रवेश कर तरन्त पचकर एक - रूप नहीं हो जाता / एक विशेष प्रक्रिया द्वारा यह कई पदार्थों में परिवर्तित होता है जिसका शोषण रक्त-प्रवाह से होता है / तत्पश्चात् रक्तप्रवाह द्वारा भोजन का वितरण सम्पूर्ण शरीर में होता है। इस प्रक्रिया को 'पाचन ' कहते हैं / मुँह में भोजन के पहुँचते ही पाचन प्रारंभ हो जाता है। पाचन की प्रथम क्रिया चबाने की है। इस क्रिया में अन्न के छोटे-छोटे टुकड़े किये जाते हैं। इससे पाचक रस को उन्हें पूरी तरह ले जाने में सुविधा होती. मुँह की लारोत्पादक ग्रंथि एक विशेष पाचक टायलिन (ptyelin) का स्राव करती है जो अन्न में मिश्रित हो जाता है तथा भोजन के स्टार्च को कार्बोज के सरल रूप अर्थात् शक्कर में परिवर्तित कर देता है। जठर एक लम्बी व पोली स्नायविक रचना है। इसमें उचित मात्रा में अन्न रखने की शक्ति होती है / इसमें जठर रस नामक पाचक रस द्वारा अन्न को मथ दिया जाता है / अन्य पाचक अंगों की अपेक्षा इसकी दीवारें मोटी होती हैं। इन दीवारों पर स्थित ग्रंथियों से प्रति दिन औसतन कुछ लीटर पाचक रस का स्राव होता है / जठर रस की मात्रा व्यक्तिगत भोजन पर निर्भर है। स्वादरहित तथा सर्वथा एक-सा भोजन ग्रहण करने से इसकी उत्पत्ति कम होती है, जबकि स्वादिष्ट व अच्छा भोजन इन रसों के स्राव को प्रोत्साहित करता है / मानसिक स्थिति का प्रभाव भी इन रसों पर पड़ता है। शांतिपूर्वक . भोजन करने से पाचन ठीक होता है / तनाव एवं क्रोध से अपचन होता है। जठर रसों में पेप्सिन, हाइड्रोक्लोरिक अम्ल तथा रेनिन होता है / पेप्सिन तथा हाइड्रोक्लोरिक अम्ल जीवन-सत्व को विभाजित करते हैं। रेनिन कुछ भोज्य पदार्थों को ठोस रूप में परिवर्तित कर देता है (जैसे दूध के केसिन नामक नाइट्रोजन-युक्त पदार्थ पर प्रभाव पड़ने से दही बन जाता है) / इससे पाचकरस अधिक समय तक उस पर विभाजन का कार्य कर सकता है / जठर रस में एक और पाचक रस होता है जिसे पेप्सिनोजेन कहते हैं / यह रस लार की क्रिया को समाप्त करता है एवं जीवाणु को नष्ट करता है। जल या अन्य द्रव पदार्थ जठर या आमाशय में कुछ मिनट से अधिक नहीं रहते / वे तुरन्त पक्वाशय (छोटी आंत का प्रथम भाग) में पहुँच जाते हैं। वहाँ उनका शोषण हो जाता है / ठोस पदार्थ जठर में ही रहते हैं / जठर रस में 368
SR No.004406
Book TitleAasan Pranayam Mudra Bandh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatyanand Sarasvati
PublisherBihar Yog Vidyalay
Publication Year2004
Total Pages440
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy