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________________ अश्विनी मुद्रा अश्विनी मुद्रा -विधि प्रथम स्थिति ध्यान के किसी भी आसन में बैठिये / शरीर को शिथिल कीजिये / नेत्रों को बन्द कर स्वाभाविक श्वास लीजिये / गुदाद्वार की मांसपेशियों (sphincter muscles) को कुछ सेकेण्ड के लिए संकुचित कर प्रसारित कीजिये। इस क्रिया की अधिक से अधिक आवृत्तियाँ कीजिये / द्वितीय स्थिति प्रथम स्थिति की तरह ही बैठिये / गुदाद्वार को धीरे-धीरे संकुचित करते हुए पूरक कीजिये / स्नायुओं का संकुचन बनाये रखते हुए ही अंतरंग कुम्भक लगाइये / रेचक कीजिये। संकुचित स्नायुओं को शिथिल कीजिये / अपनी सुविधानुसार क्रिया की पुनरावृत्ति कीजिये / समय - क्षमतानुसार आसन कीजिये, अपेक्षाकृत अधिक श्रम न कीजिये / क्रम दिन में किसी भी समय या योगाभ्यास कार्यक्रम में। .. इस अभ्यास के परिणामस्वरूप अश्व की तरह ही गुदा के स्नायुओं पर नियन्त्रण प्राप्त किया जाता है। इस अभ्यास की सिद्धि पर व्यक्ति अपनी प्राण-शक्ति के हास को रोकने में समर्थ होता है / इस तरह शक्ति का संचय होता है। इसका प्रवाह ऊपर की ओर होता है; जिससे अमूल्य उद्देश्यों की पर्ति होती है। यह मूलबंध की प्रारम्भिक क्रिया है (मूलबंध का अध्याय देखिये)। बवासीर, गुदा या गर्भाशय के बाह्यगत होने की दशा में इसका अभ्यास लाभप्रद है, विशेषकर सिर के बल किये जाने वाले आसनों के साथ इसका योग अधिक प्रभावपूर्ण होता है। आँतों के वक्रों को क्रियाशील बनाते हुए अपचन दूर करता है। लाभ 309
SR No.004406
Book TitleAasan Pranayam Mudra Bandh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatyanand Sarasvati
PublisherBihar Yog Vidyalay
Publication Year2004
Total Pages440
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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