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________________ 2. अपान . यह नाभि प्रदेश के नीचे स्थित है। यह शक्ति बड़ी आँत को बल प्रदान करती है / वृक्क, गुदा-द्वार तथा मूत्रेन्द्रियों को भी शक्ति देती है। अतः प्राथमिक रूप से इसका सम्बन्ध प्राण वायु के गुदा-द्वार तथा साथ ही नासिका एवं मुँह द्वारा निष्कासन से है। 3. समान इसका संबंध छाती एवं नाभि के मध्यवर्ती क्षेत्र से है। यह पाचन संस्थान, यकृत, आँत, क्लोम एवं जठर तथा उनके रस-स्राव को प्रेरित. तथा नियन्त्रित करता है। दिल तथा रक्ताभिसरण - संस्थान को भी क्रियाशील बनाता है / भोज्य पदार्थों में अनुकूलता लाता है। 4. उदान इस प्राण शक्ति द्वारा कंठनली के ऊपर के अंगों का नियंत्रण होता है / नेत्र, नासिका, कान आदि सम्पूर्ण शरीर की इन्द्रियाँ तथा मस्तिष्क इस शक्ति द्वारा कार्य करते हैं / इसकी अनुपस्थिति में हममें सोच-विचार की शक्ति नहीं रह जायेगी, साथ ही बाह्य जगत के प्रति चेतना भी नष्ट हो जायेगी। 5. व्यान यह जीवन-शक्ति सम्पूर्ण शरीर में व्याप्त है। यह अन्य शक्तियों के मध्य सहयोग स्थापित करती है। समस्त शरीर की गतिविधियों को नियमित तथा नियंत्रित करती है। सभी शारीरिक अंगों तथा उनसे सम्बन्धित मांसपेशियों, पेशीय तंतुओं, नाड़ियों एवं संधियों में समरूपता लाती है तथा उन्हें क्रियाशील बनाती है / यह शरीर की लम्बरूप स्थिति के लिए भी जिम्मेदार उपप्राण प्राचीन संतों एवं योगियों ने शरीर में प्राण का वर्गीकरण ही नहीं वरन् पाँच भागों में उपवर्गीकरण भी किया है। इन्हें उपप्राण कहते हैं। वे क्रमशः नाग, कूर्म, क्रिकर, देवदत्त तथा धनंजय हैं। इनका सम्बन्ध छींकना, जमुहाई लेना, खुजलाना, पलक झपकाना, हिचकी लेना आदि छोटे - छोटे कार्यों के सम्पादन से है। 260
SR No.004406
Book TitleAasan Pranayam Mudra Bandh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatyanand Sarasvati
PublisherBihar Yog Vidyalay
Publication Year2004
Total Pages440
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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