SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 98
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ क्षीयते सकलं पापं दर्शनेन जिनेश ! ते। तृण्या प्रलीयते कि न ज्वलितेन हविर्भुजा ? // 3 // हे जिनेश्वर ! आपके दर्शन [मात्र से समस्त पाप नष्ट हो जाते हैं। क्योंकि जब आग जल उठती है, तो उससे तिनकों का समूह जल कर भस्म नहीं हो जाता क्या ? // 3 // मूत्तिः स्फूतिमती भाति प्रत्यक्षा तव कामधुक् / सम्पूरयन्ती भविनां सर्वं चेतःसमीहितम् // 4 // हे देव ! भव्यजीवों की समस्त अभिलाषाओं को पूर्ण करती हुई, तेजोमय तथा प्रत्यक्ष कामधेनुरूप आपकी मूर्ति शोभायमान हो रही है। (जिसका कि मैं दर्शन कर रहा हूँ) // 4 // लोचने लोचने ते हि ये त्वन्मूर्तिविलोकिनी। यद् ध्यायति त्वां सततं मानसं मानसं च तत् // 5 // हे देव ! वे ही नेत्र वास्तव में नेत्र हैं जो कि आपकी प्रतिमा के दर्शन करने में तल्लीन हैं। तथा वही हृदय वास्तव में हृदय है जो निरन्तर आपका चिन्तन करता रहता है // 5 // सती वाणी च सा वाणी या त्वन्नुतिविधायिनी। येन प्रणम्रो त्वसादौ मोलिमौलिः स एव हि // 6 // .. हे देव ! वही वाणी उत्तम वाणी है कि जो आपकी स्तुति करनेवाली है। तथा वही मस्तक उत्तम मस्तक है, जिसने आपके चरणों में प्रणाम किया है / / 6 // मुखस्फूति तवोद्वीक्ष्य ज्योस्नामिव विसृत्वरीम् / / मुखानि कैरवाणीव हसन्ति नियतं सताम् // 7 //
SR No.004396
Book TitleStotravali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashovijay
PublisherYashobharati Jain Prakashan Samiti
Publication Year1975
Total Pages384
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, P000, & P055
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy