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________________ 224.] प्रज्ञापनीयशमिनो गुरुपारतन्त्र्यं, ज्ञानस्वभावकलनस्य तथोपपत्तेः / ध्यान्ध्यं परं चरणचारिमशालिनो हि, शुद्धिः समग्रनयसङ्कलनावदाता // 64 // - जो शमसम्पन्न साधु प्रज्ञापनीय-उपदेश के योग्य होता है, अर्थात् असत् आग्रह का परित्याग करने को उद्यत रहता है वह गुरु की अधीनता स्वीकार करता है। गुरु के अधीन होने से उसके ज्ञान का परिष्कार होता है, किन्तु जो साधु प्रज्ञापनाह नहीं होता वह गुरु की अधीनता स्वीकार नहीं करता। फलतः उत्कृष्ट चारित्र से सम्पन्न होने पर भी उसकी बुद्धि अन्धी ही रह जाती है, क्योंकि बुद्धि की शुद्धि समस्त नयों के समन्वित प्रयोगों से ही सम्पन्न होती है और वह सङ्कलन सद्गुरु के अनुग्रहपूर्ण उपदेश के बिना सम्भव नहीं होता // 14 // न श्रेणिकस्य न च सात्यकिनो न विष्णोः, सम्यक्त्वमेकममलं शरणं बभूव / चारित्रवजिततया कलुषाविलास्ते, प्राप्ता गति घनतमैनिचितां तमोभिः // 5 // . श्रेणिक, सात्यकी और विष्णु निर्मल सम्यक्त्व से सम्पन्न थे, पर अकेले सम्यक्त्व से उनकी रक्षा न हो सकी, किन्तु चारित्रहीन होने के कारण पाप से कलुषित हो उन्हें घोर अन्धकार से पूर्ण नारकी गति प्राप्त करनी पड़ी। इससे स्पष्ट है कि चारित्र के अभाव में ज्ञान और श्रद्धा दोनों का कोई मूल नहीं होता // 65 // न ज्ञानदर्शनधरैर्गतयो हि सर्वाः, .. . शून्या भवन्ति नृगतौ तु चरित्रमेकम् /
SR No.004396
Book TitleStotravali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashovijay
PublisherYashobharati Jain Prakashan Samiti
Publication Year1975
Total Pages384
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, P000, & P055
File Size20 MB
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